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________________ अध्याय 9 जैन तर्कशास्त्र 9.1 विषय प्रवेश जैनों का विश्वास है कि आत्मा (जीव) जितना ही शुद्धतर होगा, उतना ही उसके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का स्तर उच्चतर होगा। केवल सर्वज्ञ ही छ: द्रव्यों और नौ तत्त्वों को सम्पूर्ण यथार्थता के साथ जान सकता है। इसके विपर्यास में, हमारा सामान्य ज्ञान चार अन्य प्रकार के ज्ञानों के माध्यम से होता है : 1. मतिज्ञान (इंद्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न ज्ञान) 2. श्रुतज्ञान या आगम (जो ज्ञान के क्षेत्र में उच्चतम प्रमाण है), 3. अवधिज्ञान (सीमित ज्ञान) और 4. मनःपर्यवज्ञान (दूसरों के मन की बात जानना)। जैसी कि विज्ञान में मान्यता है, व्यक्ति या तो अपनी धारणाओं को अधिकारी विद्वानों द्वारा स्थापित सिद्धान्तों के आधार पर मान लेता है (जैसा हम सामान्यतः करते हैं) अथवा वह प्रत्येक धारणा को स्वयं सत्यापित करता है (जो हम कभी-कभी ही ऐसा कर पाते हैं)। तथापि, कुछ ऐसे स्वीकार्य सिद्धान्त अवश्य होने चाहिये जिनके आधार पर हम अपनी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं। साथ ही, सभी प्रकरणों में संवर्धन या परिवर्तन के लिये संभावना तो रहती ही है। यहां हम जैन तर्कशास्त्र के कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कर रहे हैं जिनसे हमें उन प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं जिनके विषय में पूर्णतः निश्चित या अनिश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि कण भौतिकी से सम्बन्धित वर्तमान सिद्धान्त (अध्याय 10 देखिये) इसी प्रकार के सिद्धान्त पर आधारित है। - जैनों ने ज्ञान और ज्ञान-प्राप्ति के विलक्षण सिद्धान्त का विकास किया है। यह एक जटिल विषय है, लेकिन यहां हम इसे संक्षेप में ही विवेचित करेंगे (देखिये टाटिया आदि के द्वारा अनुदित तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय 1 और 5, 1994)। व्यापक रूप से, हम यह कह सकते हैं कि इस विषय में तीन प्रमुख बिंदु होते हैं : 1. प्रमाण (ज्ञान के साधन, ज्ञान के अनुमत साधन) 2. नय (आशिंक दृष्टिकोण, दार्शनिक दृष्टिकोण) 3. अनेकांतवाद (समग्रता पर आधारित सिद्धान्त)। इसकी अभिव्यक्ति के लिये स्याद्वाद (सापेक्ष कथन) एक अनिवार्य अंग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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