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________________ 106 जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला किसी भी वस्तु के विषय में ज्ञान की प्राप्ति दो प्रक्रियाओं से होती है : 1. आंशिक प्रक्रिया (नय) 2. समग्र प्रक्रिया (प्रमाण)। समग्र प्रक्रिया को प्रमाण (ज्ञान के साधन) कहते हैं। यह विधि न केवल दर्शन एवं परीक्षण की प्रक्रिया को विश्वसनीयता प्रदान करती है, अपितु यह मानसिक अवबोधन की प्रक्रिया को भी विश्वसनीयता प्रदान करती है। दोनों - भौतिक और मानसिक प्रक्रियाओं के समाहरण से यह विधि वस्तु की समग्रता को प्रदर्शित करती है। इसके विपर्यास में, आंशिक प्रक्रिया को नय (या सापेक्ष दृष्टिकोण) कहते हैं। इस प्रक्रिया में वस्तु का अध्ययन किसी भी समय किसी विशेष अपेक्षा या पक्ष के आधार पर किया जाता है। चूंकि वस्तु के अनेक धर्म या पक्ष होते हैं, फलतः नय भी अनेक हो सकते हैं। तथापि, इससे वस्तु के स्वरूप का समग्र चित्र नहीं मिल पाता। प्रमाण के दो भेद हैं : 1. प्रत्यक्ष और 2. परोक्ष। प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं -- 1. इंद्रिय प्रत्यक्ष और 2. अ-निंद्रिय प्रत्यक्ष । इंद्रियजन्य ज्ञान के अंतर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क या व्याप्ति (सह-धर्मिता या अविनाभाव) और अनुमान के प्रक्रम समाहित होते हैं। यहां यह ध्यान देने की बात है कि आगे दिये गये विवरण में पंचावयव अनुमान के अंग हैं। जैन सिद्धान्त की यह मान्यता है कि अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान अनिद्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जैनों के प्रमुख आगम ग्रंथ परोक्ष ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं। कोई भी प्रत्यक्ष ज्ञान, जो शब्दों द्वारा व्यक्त किया जाय, ज्ञान का परोक्ष स्रोत है। इस प्रकार के ज्ञान के विशेष विवरण के लिये तत्त्वार्थसूत्र (अनुवाद डा. टाटिया, डा. जैनी आदि, पेज 15) देखिये। नय किसी भी वस्तु के क्रमिक एवं सम्पूर्ण अध्ययन के लिये आधार का काम करते हैं। ये दो प्रकार से संभव हैं : 1. वस्तु के गुणों के आधार पर और 2. वस्तु के गुणों के विषय में शाब्दिक अभिव्यक्ति के आधार पर। ये आधार वस्तु के गुणों या शाब्दिक अभिव्यक्तियों के समग्र सामान्य चित्र से प्रारम्भ होकर अंतिम चित्र तक जाते हैं। इस आधार पर जैनधर्म में सात नय बताये गये हैं: 1. नैगम नय (सामान्य व्यक्ति का दृष्टिकोण) 2. संग्रह नय 3. व्यवहार नय 4. ऋजुसूत्र नय (रैखिक नय) 5. शब्द नय 6. समभिरूढ़ नय (व्युत्पत्ति-जन्य) 7. एवंभूत नय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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