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________________ आत्म-विजय का मार्ग 7.4. पाँचवे गुणस्थान से ग्यारहवां गुणस्थान __ जैसा खंड 7.3 में बताया गया है कि जब मिथ्यात्व सम्यक्त्व के रूप में प्रतिस्थापित होता है, तब व्यक्ति चौथे गुणस्थान में और उसके ऊपर चला जाता है। पांचवे गुणस्थान में व्यक्ति उच्चतर संयम की कोटि की ओर बढ़ना प्रारंभ करता है अर्थात् वह विभिन्न प्रकार के व्रतों (प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकृत किये गये नियमों) का पालन करता है जो आंशिक संयम को जन्म देते हैं। छठवें गुणस्थान में पूर्ण संयम का पालन होता है। पांचवां गुणस्थान सामान्य मनुष्य की जीवन-पद्धति के समकक्ष होता है, जबकि छठा गुणस्थान साधु के मार्ग के अनुसरण के अनुरूप होता है। छठे गुणस्थान में, अर्थात् पूर्ण संयम के स्तर पर, पूर्ण नियंत्रण और उच्चतर व्रतों का पालन किया जाता है। ये विभिन्न चरण कैसे प्राप्त होते हैं, यह अध्याय 8 में विवेचित किया गया है। सातवें गुणस्थान में, प्रमाद शून्य हो जाता है। इसका निहितार्थ यह है कि यहां क्रोध शून्य हो जाता है। इसीलिये इस चरण को 'अप्रमत्त संयत' कहते हैं। फिर भी, यहां चारों कषायों का किञ्चित् अस्तित्व तो बना ही रहता है। आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान में, व्यक्ति ध्यान के माध्यम से मान, माया और लोभ की कोटि को शून्य करने का प्रयत्न करता है। ध्यान के माध्यम से विकसित आठवें, नवें और दसवें गुणस्थानों के नाम क्रमशः निम्न हैं : 8. अपूर्वकरण, पूर्ण संयम के साथ 9. अनिवृत्ति/समान करण, पूर्ण संयम के साथ 10 सूक्ष्म सम्पराय/कषाय, पूर्ण संयम के साथ सारणी 7.2 में इन गुणस्थानों का संक्षेपण किया गया है। जब इन गुणस्थानों में चारों कषायें क्षीण होने के बदले उपशमित होती हैं, तो व्यक्ति केवल ग्यारहवें गुणस्थान में उपशांत कषाय के साथ पूर्ण संयम पर पहुंचता है। तथापि, यहां लोभ की उपशमित अवस्था में, व्यक्ति के नीचे (के गुणस्थानों) की ओर जाने की संभावना रहती है। लेकिन यदि ध्यान के प्रभाव से चारों कषाय पूर्णतः क्षीण या निरस्त हो जाती हैं और लोभ की कोटि स्थायी रूप से शून्य हो जाती है, तो व्यक्ति दसवें गुणस्थान से सीधे ही बारहवें गुणस्थान पर जा पहुचंता है। इसका नाम हैं "क्षीण (लोभ) कषाय (पूर्ण संयम के साथ) की अवस्था।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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