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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला प्रदर्शित नहीं कर पाते और आत्मा वस्तु तत्त्व के प्रति सही एवं स्थायी दृष्टिकोण की अनुभूति करने लगता है।
चारों कषायों के तीसरी कोटि तक सीमित होने से उत्पन्न प्रबुद्ध दृष्टिकोण का अंतरंग संकेत आंतरिक परिवर्तन का प्रतीक है। इस स्थिति में आत्मा के ध्यान की दिशा पुनर्गठित होती है जिसका केन्द्रबिन्दु आत्मा के स्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता। इस प्रकार, इस स्थिति में 'मैं' के बदले 'वास्तविक अन्तरात्मा के साथ एकाकारता होने लगती है और उसके सुख-घटक की तीव्र अनुभूति भी होने लगती है। व्यवहार और सकारात्मक अंहिसा'
जब आत्मा स्वयं में शांति का अनुभव करने लगता है, तब उसका व्यवहार भी उन्नत और शांत होने लगता है। इस स्थिति में व्यक्ति सभी प्राणियों में विद्यमान मूलभूत समानता के प्रति जागरूक हो जाता है और यह अनुभूति दुःखी प्राणियों के प्रति मैत्री एवं करुणा की भावना को जन्म देती हैं। यह करुणाभाव दया और व्यक्तिगत बंधनों से मुक्त होता हैं। इस अनुभूति के कारण, आत्मा इस तथ्य को जानने लगता है कि सभी प्राणी मोक्ष के अधिकारी होते हैं। इससे अब दूसरे प्राणियों को समताभाव के साथ मुक्ति को प्राप्त करने में निःस्वार्थ मार्गदर्शन की भावना उत्पन्न होती है। सकारात्मक अहिंसा विनाशक और शोषक व्यवहार की पहिचान कराती है। सकारात्मक अहिंसा का यह पक्ष स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 ब का व्यावहारिक उपयोग है। चार कषायों का प्रभाव
चौथे चरण को प्राप्त करने के लिये, तपस्या करने की बात स्पष्टतः कहीं भी नहीं बताई गई है, लेकिन अंतर्निहित रूप से यह माना जाता है कि तपस्या का अभ्यास करना चाहिये, क्योंकि चौथे चरण में कषायों की कोटि को तीसरी कोटि तक सीमित करना चाहिये। यह संयम के बिना नहीं हो सकता। वैसे भी, अहिंसा का पालन बिना आत्म-संयम के नहीं हो सकता।
इस स्तर पर जो प्रथम आत्म-जागरण होता है, उससे कुछ कार्मन-कणों का अपनयन होता है जिससे व्यक्ति संयम या आत्मनियंत्रण की मध्यम कोटि में आ जाता है अर्थात्, व्यक्ति न तो क्रोध के आवेश में जाता है, न जटिल माया के प्रपंच में फँसता है, न अंध अभिमानी होता है और न ही लोभ आदि के आवेश में आता है। इसके साथ ही, चौथे गुणस्थान की पूर्णता होने पर व्यक्ति में अधिक सहिष्णुता, अल्प क्रोध, अधिक विनम्रता, अल्प अभिमान, अधिक सरलता और अल्प छल-प्रपच, अधिक संतोष और अल्प लोभ के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलने लगते हैं।
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