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________________ जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला सारणी 7.2 पाँचवें से ग्यारहवें गुणस्थानों की सूची और उनके अनुरूप भावात्मक स्तर 80 चरण 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. नाम प्रबुद्ध दृष्टिकोण के साथ, देशविरत प्रबुद्ध दृष्टिकोण (सम्यक्त्व ) के साथ, प्रमत्तविरत अप्रमत्त-विर पूर्ण - संयम के साथ, अपूर्वकरण पूर्ण - संयम के साथ, समान-मृदु-करण भाव पूर्ण-संयम के साथ, सूक्ष्म - सम्पराय (लोभ) पूर्ण - संयम के साथ, उपशांत कषाय स्तर सच्चा जैन श्रावक (जैन) साधु आध्यात्मिक गुरु, उपाध्याय आध्यात्मिक आचार्य प्रगत आचार्य Jain Education International कषायरहित अवस्था 7.5. बारहवें से चौदहवां गुणस्थान (शुद्धिकरण के चरण) बारहवें गुणस्थान पर पहुंचने पर (मोहनीय कर्म के अतिरिक्त) तीन प्राथमिक या घातिया कर्म - घटक (ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म) स्वयं ही आत्मा से वियोजित हो जाते हैं जिससे आत्मा तेरहवें गुणस्थान पर आ जाता है जिसे अनंत ज्ञान या सर्वज्ञ की अवस्था कहते हैं । तेरहवें गुणस्थान का नाम है क्रियाशील सर्वज्ञ या सयोगकेवली । इस गुणस्थान में कषायों के विनाश से केवल योग का कारक ही आत्मा की अवशिष्ट क्रियाओं का नियंत्रण करता है जो भौतिक शरीर के चलते रहनें में अभी भी आवश्यक है । तथापि, ये क्रियायें नये कर्मों का आस्रव या बंध नहीं करतीं। साथ ही, सर्वज्ञ जीव के द्वितीयक कार्मिक घटक भी क्रमशः वियोजित होते जाते हैं और अंत में कोई कर्म -घटक बंधित अवस्था में नहीं रहता। इस स्थिति के अंतिम चरण में शरीर भी अक्रिय या क्रियारहित हो जाता है। इस अवस्था को 'अक्रिय सर्वज्ञता' या 'अयोग केवली का चरण कहते हैं। यही चौदहवाँ गुणस्थान गुणस्थानों का अंतिम चरण हैं । यह स्थिति निर्वाण प्राप्ति के पूर्व अधिकतम अंतर्मुहूर्त (< 48 मिनट) तक रहती है। जिस क्षण निर्वाण या महामृत्यु होती है, आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से पूर्णतः मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। I सारणी 7.3 में इन तीन उच्चतर गुणस्थानों का संक्षेपण किया गया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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