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जैनधर्म में मूलतः द्रव्य हिसा और भावहि सा ऐसे दो भेद किए गये हैं । इसे बाह्य स्थूल और मानसिक सूक्ष्म हिसा भी कह सकते हैं । किसी भी प्राणी को दुर्भावना या स्वार्थ से प्रेरित होकर शारीरिक कष्ट पहुंचाना द्रव्य हिंसा हैं। इसके अन्तर्गत प्रोगियों का शिकार करना आदि सम्मिलित है । और दूसरे प्रकार की हिसा भावहि सा है । इसके अन्तर्गत किसी भी प्राणी का मन भी दुखाना हिंसा हैं | हमारे कृत कारित या अनुमोदनार्थ, मन, वचन कर्म से किसी भी व्यक्ति या प्राणी के मन को ठेस पहुंचे तो वहां भाव हिंसा का दोष लगता है । हाँ ! इसमें भी द्वेष, स्वार्थ आदि का भाव हो तो अन्यथा एक पिता अपने बच्चे को सुधारने के लिए जो शब्द प्रयोग करता है उसमें भाव हित के हैं-द्वेष के नहीं । - अतः वहां इस सूत्र का प्रयोग न करें । ये पंक्तियां इस तथ्य को ast मार्मिकता से व्यक्त करती हैं
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तुम खुद जिओ जीने दो जमाने में सभी को अपने से कम न समझो दुनियाँ में किसीको ||”
भ. महावीर का सूत्र था - -'जिओ और जीने दो ।' सच भी है । यदि हम जीना चाहते हैं तो हमें दूसरे को जीने का पूरा अधिकार और स्वतत्रता देनी होगी ।
वर्तमान युग में भौतिक साधनो की वृद्धि ने व्यक्ति को अधिक सुख-सुविधा मय जीवन जीने की सामग्री प्रदान की है । पर, व्यक्तिने वहां परिग्रह को अधिक स्थान देकर संग्रह करने की वृत्ति नपाई । परिणाम स्वरुप संग्रह और अभाव बढ़ा | संघर्ष बढे हि सा भी बढ़ी । इसलिए पुनः भ. महावीर के समतावाद का स्मरण करना होगा। सभी को सभी सुविधाये उपलब्ध हैं। तभी हिंसा को रोका जा सकेगा । तभी व्यक्ति और समाज में प्रेम
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