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की कुप्रेरणा से हिंसा की वृत्ति और प्रकृति जन्मती है । मनुष्य के अंदर कुछ चक और ग्रंथियां हैं। उनके स्थान योग और शरीर विज्ञान से भी सिद्ध हो चुके हैं। इन ग्रंथियों के स्त्राव से एव' चक्रस्थानों के ध्यान से वृत्तियों को प्रेरणा मिलती है । मस्तिष्क वैसा ही आचरण करने की आज्ञा देता है। उदाहरण के लिए जब व्यक्त अपने मनोनुकूल परिस्थिति या कार्य नहीं कर पाता या होते नहीं देखा तो उसकी ग्रंथीयों में तनाव आता है । समतोल रखने बाला स्राव असंतुलित रूप से प्रवाहित होने लगता है। व्यक्ति में उत्तेजना बढ़ती है । उसके संपूर्ण शरीर में तनाब आ जाता है उसकी मुखाकृति विकृत, बोलने की क्रिया में गड़बड़ी, आंखे लाल हो जाती हैं । शरीर कापनें लगता है और श्वास की रफ्तार अत्यधिक बढ़ जाती है । पहले आदमी खुद के मनोभावों की हिंसा करता है फिर विवेक ग्बोकर दूसरों का अहित, वध, ब'धन आदि करता है | कोध हिसा की पूर्व भूमिका ही है । क्रोधी व्यक्ति सदैव हिसक होगा । वह सदैव तनाव के घात में लगा रहेगा क्रोध का दौर खम होते ही जब वह जरासा विचार करता है तो वह स्वर्य अनुभव करता है कि उसने कितना बड़ा अनिष्ठ किया । उसे दडात्मक परिगाम भी भागने पड़ते हैं। पर, पीछे पछताने से क्या ? इसी प्रकार अभिमान, कपट एवं लोभ करने वाला निरंतर दूसरों को नीचा दिखाने का ही विचार करता रहता है । धन की प्राप्ती के लिए यह अनेक गलत रास्ते अपनाता है । इस प्रकार इन कायों के पोषण के लिए उसे बहुविधि से हि'सात्मक वैया अपनाना पता है । हमारे समक्ष रोज ऐसी घटनायें घट रही हैं । अमुक व्यक्ति ने अति क्रोध में या तो भात्महत्या की या अन्य की हत्या कर डाली । धन के लिए बड़े-बड़े डाके, खून किए । ऐसा = कि सदैव विकृा रहता है ।
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