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जैन-मनीषियों ने ही पहली बार पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाशकायी जीवों के अस्तित्व का स्वीकार किया । साथ ही यह तथ्य भी समझा कि प्रत्येक दुर्गुग या दुव्यवस्था में मूल कारण हिंसात्मक क्रिया या भाव ही होते हैं। .
भ. महावीर के समय हिंसा का वातावरण सर्जित हो चुका था। धर्म और पुण्य के नाम पर हिंसा की ज्वालायें धधकने लगी थी । लोग भयाक्रांत थे । अंधश्रद्धा या जादूगरों के छल-प्रपंचो में फंसने पर हिंसात्मक विधियों में ही खो गये थे। ऐसे समय भ. महावीर ने धार्मिक और सामाजिक क्रांति का "हिंसा धर्म नहीं पाप है" की घोषणा की । लोगों को भ्रम संशय एव अंधविश्वासों : में से बाहर निकाला । मनुष्य-मनुष्य के बीच धर्म, जाति एव'
सामाजिक ऊच नीच के भेदों के कारण जो वैमनस्य एव हिंसास्मक भाव थे उन्हे ललकारा । लोगों को समानता, स्वतन्त्रता, समन्वय सहिष्णुता का अमृत मन्त्र दिया और सब के मूलों में अहिंसा की प्रस्थापना की । उस युग में अहिंसा की ही सर्वाधिक आवश्यकता थी इसीलिए अहिंसा का मूलतथ्य या नीव के रुप में स्वीकृत किण । वैचारिक हिंसा को भी दूर करने के लिए स्याद्वाद का अमूल्य दर्शन प्रदान किया । लोगों को ज्योंही यह मंत्र मिला"अहिंसा परमो धर्मः” और उगके प्रभाव को देखा-त्योंही मानो उनके जीवन में मानवता का नवीन सूर्य ऊगा । वे भ्रमजाल से सत्य की ओर आकृष्ट हुए । अहिसा की महत्ता की पूर्व पीठिका को जानने के पश्चात उसके दर्शन को भी संक्षिप्त में समझेंगे ।
__मनुष्य का मन सारी अच्छाइयों और बुराइयों का उद्दगमस्थान है । मूलतः क्रोध-मान-माया और लाभ जो चार कषाव हैं वे व्यक्ति को सदैव कुवृत्तियों की ओर प्रेरित करते हैं । इन्ही चारो
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