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प्रचारक इसकी प्राचीनता को जानते-समझते हैं । उसका परोक्ष रूप से स्वीकार भी करते हैं । पर'तु, किन्ही कारणों से उसके कथन स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं करते या फिर उसमें कतराते हैं । वे जैनधर्म को भी हिंन्दू धर्म की ही शाखा मानकर अपनी मान्यताओं की इति श्री कर देते हैं । वें इस धर्म का प्रारभ महावीर से मान कर उसकी प्राचीनता को ही झुठला देने का प्रयास करते हैं। उनके समक्ष स्वय' वेदों और भागवत के उन्ही के शास्त्रों के उदाहरण होते हुए भी क्यों अस्वीकार करते हैं यह समझ में नहीं आता । किसी जैन द्वारा इसकी प्राचीनता यदि प्रमाणित की जाती हैं तो ये लोग इसे जैनो की आत्मश्लाधा कहकर नकार देते हैं । इतना ही नहीं एक ऐसा भी युग आया जब जैन धर्म के विस्तरण को देखकर तेजाद्वेष के कारण इन्हेांने इस धर्म को हिन्दू धर्म की प्रतिक्रिया के रुप में जन्मा नास्तिक धर्म कहकर उस पर प्रहार किए । उसकी सत्यता पर वज्रपात किया वास्तव में देखा जाये तो इन लोगों ने इस प्रकार जैन धर्म के साथ हिन्दू धर्म की कुसेवा की है । अनन्त युगों से एक साथ प्रचलित और पल्लवित इन संस्कृतियों में जो पारस्परिक आदान-प्रदान की भावना थी उस पर कुठाराघात किया । सस्ती लोकप्रियता में मोहांध होकर भारतीय ऐतिहासिक संस्कृति को विकृत ही किया । ___इन कथित धर्मनेताओं ने जैन धर्म को वेद विरोधी, नास्तिक आदि तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखा । आवेश में आकर यहां तक विषवमन किया और उपदेश दिया ‘पर्वतकाय गजराज के पांव के नीचे कुचल कर मर जाना श्रेयस्कर है पर जिनमंदिर में पांव नहीं रखना" | ऐसा वैमनस्यपूर्ण कथन वे अनेक शास्त्रों का आधार देकर सिद्ध करना चाहते हैं । यद्यपि किसी शास्त्र में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता ऐसी कटुआलोचना वेद-पुराण में कहीं नहीं है ।
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