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________________ इस विचार गर गहरी दृष्टि से विचार करने पर से इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विधान भूलतः यों होगा कि हाथी के पांच के नीचे कुचलकर मर जाना श्रेष कर है पर जनम दिर में पांच नहीं रखना । मात्रार्थ यह था कि जनम दिर अर्थात वेश्यालय । मूल विधानकर्ता का बड़ा ही शुभ उद्देश्य था कि समाज में ठणपक अनैतिकता, व्यभिचार वेश्यागमन आदि. दूपण दूर कैसे हे। उन्हें दूर करने के लिए धर्म के माध्यम से कैसे समझाया जाये ? इसी लिए उन्होंने ऐसा उपदेश किया पर, द्वेष से भरे जैन धर्म के प्रति-विष-वमन करने वाोंने बड़ी चालाकी से संचाइन में जन का जिन' कर दिगा और दो संस्कृतियों में एक भयानक विग्रह उत्पन्न किया । विरोध की खाई खोद डाली । कहां इस वाक्य के रूप में पतितोन्मुख ममाज को ऊपर उठाना था और कहां दो संस्कृ तियों को लड़ा दिया ।. यह है बुद्धिं का दुरुपयोगी चमत्कार ! जब कि ऐतिहासिक तथ्यो को विकृत करने की कुचेष्टा की जा रही है। उस समय विद्धाों का यह पुनीत कर्तव्य हो जाता है कि वे निरपेक्ष भाव से सत्य अर्थघटन करना अपना कर्तव्य ही नहीं धर्म ममझे । उनका ऐसा कार्य ऐक्य की दृष्टि से सेतुका कार्य करेगा। अरे ! गीता का महानवाक्य-"स्वधर्भ निधनः श्रेयः परधर्मः भया वहः” वाक्य की भी विकृत व्याख्या करके यह कहा कि स्वधर्म में मरना श्रेषकर है पर, अन्य धर्म से भयभीत रहें वा उसमें न जाये बात सही है यहां धर्म शब्द पंथ के अर्थ में नहीं था | उसका भावार्थ था अपने कर्दाव्य पर मरमिटना ही श्रेयस्कर है । हम अन्य के कार्यो में हस्तक्षेप न करें अन्यथा संघर्ष होगा । बात थी अपने कार्य में दत्तचित होना और दूसरों के कार्य में दखल न देना बात थी प्रेम बढ़ाने की । पर धर्म शब्द का संकुचित अर्थ करके उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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