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________________ भाशन जन्म नहीं लेते, व प्रत्येक जीव स्वयं अपने कर्मों का क्षय कार में भगवान बन सकने को क्षमतावान होता है । वहां तीर्थ कर का गंभषित जीव भी अभिमान करे तो अनंत योनियों में भटकेगा किसी को कोई छूट नहीं । पोपी से पापी जीव भी सच्चे मन से माधना में लीन हो जाये तो कर्मबंधनो से मुक्त होकर परमपद की प्राति कर सकता है । दूसरे जैन धर्म में संसार का सर्जक, पालन या विनाशक कोई विशेष पुरुष नहीं होता । यहां प्रत्येक क्षण जीव कर्मवध एवं क्षय करता कहता है | संसार इसी क्रममें नित्यजन्म एव' क्षय प्राप्त करता है यहां तीर्थंकर आदि न लीला करते है न अन्य का कोई दुख नाश करते हैं वे तो स्व के कर्मों की निर्जरा करते हैं मात्र पथदर्शक बनते हैं चलना तो जीव को ही है । इस प्रकार शुभप से मोक्ष तक की यात्रा की वैज्ञानिक पद्धति पब स्वयं उसका प्रयोग करने की बात इस धर्म की विशिष्टता है । यही तत्व है जो दोनों के बीच स्पष्ट पृथक्तत्त्व प्रस्तुत करते हैं । अहिंसा का बाह्य एव' आन्तरिक रुप से यानी द्रव्य और भाव से अहिंसा का पालन करना इसका मूल सिद्धांत या नीव है-जवकि हिन्दू धर्माचायों ने यज्ञ आदि में उसकी छूट देकर उसकी मूल भावनाओं को विकृत किया है । हिंसा से बचने के लिए इसीलिए जैन धर्म के क्रियाकांड भी पुर्ण अहिंसक रहे । जीवन में आहारव्यवहार में भी उसकी प्रधानता होने से रात्रि भोजन आदि का कठोरतो से निषेध कर उसे अधर्म माना । जैन धर्म की प्राचीनता जैन धर्म की प्राचीनता या उसकी ऐतिहासिकता को लेकर अनेक भ्रांतियाँ प्रचलित हैं । यद्यपि जौनेतर विद्वान, पंडित और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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