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विरोधी धर्म का होना असंभव मानकर इस स्याहाद कथन को असंगत कथन कहा है । शंकराचार्यजी चूकि एक ही पदार्थ में शीत-उष्ण होने की बात का उदाहरण देकर कुछ तर्कों द्वारा सिद्धांत को असंगत कहते हैं पर वे भूल गये कि अपेक्षा भेद से एक ही पदार्थ में अनेक विरोधी धर्म हो सकते हैं । जैसे कोई व्यक्ति बड़े की अपेक्षा कनिष्ठ है तो छोटे की अपेक्षा ज्येष्ठ भी है। अरे ! एक ही नरसिंह स्वरूप पर नर एवं सिंह शरीर के भाग की अपेक्षा क्या सत्य नहीं है ? तात्पर्य कि हमें सापेक्ष दृष्टि से देखना होगा । हां ! यदि एक ही दृष्टि से 'अस्ति-नास्ति' कथन हो तो अवश्य दोष होगा । जैसे एक ही व्यक्ति को पति और पुत्र एक ही स्त्री के संबंध में कहा जाये तो भारी विडंबना होगी ही। स्वर्ग नरक की दृष्टि से नास्ति होने पर क्या स्वर्ग मिट गया ? शंकराचार्यजी ने अपेक्षा भेद से इस सिद्धांत को समझा होता तो शायद वे स्पष्ट हो सकते थे । श्री बलदेव उपाध्यायजी यद्यपि स्यात का शब्दार्थ 'शायद' नहीं करते पर ‘संभवतः शब्द को मानकर वे श्री शंकराचार्यजी का समर्थन करते हैं | श्री शंकराचार्यजी की मान्यता को विद्वान भी रूढ़िगत मानते जा रहे हैं । जो लोग 'स्याद्वाद' में ' स्यात' का अर्थ 'संभवतः' मानते हैं वे भी अर्थसत्य तक ही अपनी दृष्टि दौड़ाते हैं । स्याद्वाद तो वस्तु के निश्चित गुण कथन स्पष्टता का द्योतक है अतः उसमें संशय या स भावना दोनों की कल्पना ही अव्यवहारिक हैं ।
__वर्तमान युग के विद्वान चिंतक डॉ. राधाकृष्णन ने स्याद्वाद को अर्ध सत्य तक पहुंचने वाला ज्ञान माना है । इससे पूर्ण सत्य नहीं जाना जा सकता । उनके अनुसार स्याद्वाद अर्धसत्य तक पटक देता है । इस अर्धसत्य मान्यता का खंडन करते हुए भी महेन्द्रकुमारजी ने सच ही लिखा है कि राधाकृष्णन इसके हृदय
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