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________________ ९९ तक नहीं पहुंचे न ही उन्होंने जैनदर्शन के उस सत्य को परखा जो वेदांत की तरह चेतन और अचेतन काल्पनिक अभेद की दिमागी दौड में शामिल नहीं हुआ । साथ ही जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्त धर्मात्मक है, जब उस वास्तविक नतीजे पर पहुंचने को अर्ध-सत्य कसे कहा ? डॉ. देवराजजी ने भी 'पूर्व और पश्चिमी दर्शन' में स्यात का अनुवाद कदाचित किया जो ठीक नहीं । क्योंकि कदाचित तो संशय ही उद्भव करेगा। अरे ! प्रमाणवार्तिक के आचार्य धर्मकीर्ति तो जैसे रोष में प्रलाप ही कर बैठे और बलिहारी तो यह है कि सभी तत्वों को उभयरपी मानने के सदर्भ में वे दही और ऊँट को एक मानकर दही की जगह ऊँट खाने की बात कर बैठते हैं । अब इसे तर्क कहा जाये या विकृत या कुतर्क । उन्हें यही भेद मालूम नही कि द्रव्य की अतीत और अनागत पर्यायें जुदी हैं । व्यवहार तो वर्तमान पर्याय के अनुसार चलता है । प्रज्ञाकर गुप्त जैसे चिंतक तो वस्तु के उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य को ही सत्य नहीं मानते । वे क्या यह स्वीकार करते हैं कि मिट्टी घट बनकर मिट्टी के मूल स्वरुप में है ? 'क्या पर्याय नहीं बदली ?' क्या एक क्षण के व्यय हुए बिना नया क्षण आयेगा ? क्षण सन्तति निरंतर चालू रहती है । काश वे समझ सकते कि 'वर्तमान क्षण में अतीत के संस्कार और भविष्य की योग्यता का होना ही ध्रोव्यत्व की व्याख्या है।' इसी प्रकार तत्कालीन अनेक बौद्धाचार्यों एवं हिन्दू धर्म के चिंतकों ने 'स्यात' को पूर्ण रूप से न समझने के कायरण या एकांतवादी दृष्टि से इसमें शंका कदाचित, अर्धसत्य जैसे विधानों से अपना रोष या बिरोध प्रकट किया । श्री श्रीकंठ जैसों ने स्याबाद में अपेक्षारुपी व्यवस्था को गुड़ चटाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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