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________________ ९७ सात कथन - प्रकार ही पूर्ण परीक्षण में सहायक होगे । महापंडित राहुलजी ने इस स्याद्वाद की उत्पत्ति संजयवेलट्ठिपुत्त के चार अंगों वाले अनेकान्तवाद से मानते हुए उसे ही सात अंगों में परिवर्तित माना है । राहुलजी ने संजय के नितांत अनिश्चयवाद के साथ कैसे स्याद्वाद को जोड़ा यह विचित्र लगता है । डाँ. महेन्द्रकुमार जैन व्याकरण चार्य ने इन विविध मीमांसकों के मतों के साथ स्याद्वाद की तुलना करते हुए उसकी विशिष्टता पर जिस रूप से प्रस्तुत किया उससे स्याद्वाद के विषय में स्पष्टता होतीं हैं । मैं' पहले ही उल्लेख कर चुका हूँ कि जहां भगवान बुद्ध ने शंका निवारण के स्थान पर मौन धारण किया या शिष्यों से कहकर - - ' इनके बारे में कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिए उपयोगी नहीं, न वह निर्वेद, निसेध शांति परमज्ञान या निर्वाण के लिए आवश्यक है | उन्हें मौन कर दिया वहीं महावीर ने जिज्ञासुओं को मौन रहने का आदेश नहीं दिया, अपितु उनकी जिज्ञासा को संतुष्ट किया । संजय की भाँति अनिश्चितता का तो प्रश्न हीं नहीं उठता। इस संतुष्टि का आधार था सप्तभंगी एवं स्याद्वाद पद्धति । डॉ. संपूर्णनंद ने इसे सप्तभंगी न्याय या स्वाद्वाद को बाल की खाल निकालने वाली पद्धति कहा । पर वे भूल गये कि वाद विवादों, संशय एवं अनिश्चितता के युग में यह परम आवश्यक पद्धति थी । डॉ. जैन ने सच ही लिखा'जैनदर्शन ने दर्शन शब्द की काल्पनिक भूमि से उठकर वस्तु सीमा पर खड़े होकर जगत में वस्तु स्थिति के आधार से संवाद, समीकरण और यथार्थ तत्वज्ञान की अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद भाषा दी, जिनकी उपासना से विश्व अपने वास्तविक स्वरुप समझ निरर्थक वादविवाद से बचकर संवादी बन सकता है ।' श्री शकराचार्यजी ने एक ही पदार्थ में 'अस्ति एवं नास्ति ' परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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