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________________ प्रकरण चौथा ૨૮ इतिहास है वह लौंकागच्छ की पटावलियें ही हैं, इनको यदि निकाल दिया जाय तो स्थानक मार्गियों के पास कुछ भी अपना पूर्व इतिहास शेष नहीं रहता । और लौंकागच्छ के प्रतिपक्षियों ने भी जो कुछ लिखा है वह भी लौकाशाद के लिए ही, न कि स्थानकमार्गियों के लिए। फिर समझ में नहीं आता है कि आज स्थानकमार्गी लोग लोकाशाह को अपना धर्मस्थापक एवं धर्मगुरु किस कारण मानते हैं ? क्या लोकाशाह के सिद्धान्त स्थानकमार्गी मान्य रखते हैं ? । विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में एक लौकाशाह नामक व्यक्ति ने जब जैन समाज में उत्पात मचाकर अपने नये धर्म की नींव डाली, उसके विरुद्ध में अनेक धुरंधर विद्वान् श्राचार्योंने अपनी आवाज़ उठाई और लौंकाशाह के खण्डन में अनेक प्रन्थों में उल्लेख भी किए, पर लौकाशाह और लौंकाशाह के किसी भी अनुयायी ने उससमय कुछ भी प्रत्युत्तर दिया हो, इस विषय में कोई उल्लेख नजर नहीं आता है। इतना ही नहीं पर लौंकाशाह के मूल सिद्धान्त क्या थे ? वह कौनसी धर्म क्रियाएँ करता था इसका भी कोई उल्लेख न तो स्वयं लौंकाशाह का और न उनके प्रतिष्ठित मतानुयायीका ही मिलता है, इससे यह पाया जाता है कि न तो स्वयं लोकाशाह किसी विषय का विद्वान् था और न उनके पास कोई अन्य विद्वान् ही था । केवल पाप पाप, हिंसा-हिंसा और दया- दया करके भद्रिक जनता को मिथ्याभ्रम में डाल अपना सिक्का जमाना ही लौंकाशाह का सिद्धान्त था, यह कहें तो मिथ्योक्ति नहीं है । लोकाशाह के जीवन चरित्र विषय में लौका-शाह के समकालीन लेखकों ने जो कुछ लिखा है, उससे ठीक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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