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इ. अभाव क्यों?
निकाला तो वे रुघुनाथजी श्रादि स्थानकमार्गियों का इतिहास व उपकार कब मानने बैठे थे ? वे तो उलटा उन्हें (रुघुनाथजी
आदि को ) शिथिलाचारी, उत्सूत्रवादी और निन्हव कहने में भी नहीं चूके । जैसे कि धर्मसिंह, लवजी ने लौकाशाह के अनुयायियों श्री पूज्यो और यतिवरों को कहा था। इस हालत में स्थानकमार्गियों के पास लौकाशाह का इतिहास न मिले तो यह संभव ही है । जब वि० सं० १८६५ में अहमदाबाद में संवेग पक्षिय महान् पं० वीर विजयजी गणि और स्थानक मार्गी साधु जेठमलजी के आपस में शास्त्रार्थ हुआ तो वहाँ धर्मसिंहजी लवजो से ही उनका काम नहीं चला,किन्तु मूर्तिपूजा के विरोध में लौकाशाह को भी याद करना पड़ा, और उन्होंने अपने समकित सार नामक पुस्तक में लौकाशाह की चर्चा भी की। (इसे हम पूर्व भी लिख चुके हैं ) बस, स्थानकमार्गी समाज में कहीं भी लौंकाशाह का यदि नामोल्लेख किया गया है तो स्व-स्वार्थ साधनार्थ एक इसी पुस्तक में सर्व प्रथम स्वा० जेठमलजी ने किया है, पर यह वर्णन सादा और सरल होने से आज के स्थानकमागियों को रुचिकर नहीं होता। अच्छा होता, यदि जेठमलजी अपनी पुस्तक में लौंकाशाह विषयक प्रसंग को जरा भी स्थान नहीं देते कि ये बिचारे अपनी रुचि के अनुसार निःसंकोच हो लौंकाशाह के जीवन चरित्र का ढाँचा उपन्यास के तौर पर ऐसा सुन्दर खड़ा करते, जिसे देख सभ्य समाज को भी एक बार दंग रह जाना पड़ता, परन्तु दुःख है कि जेठमलजी का किया हुश्रा लौकाशाह विषयक उपकार उलटा अनुपकार सिद्ध हो इन नयी रोशनीवालों के मार्ग में बाधा डाल रहा है।
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