________________
प्रकरण पहिला
श्रीमान् लौंकाशाह कौन थे ? तिक्रम की सोलहवीं शताब्दी संसार भर के लिये और
- विशेष कर जैन समाज के लिये एक भीषण उत्पात का समय था । इस शताब्दी में जितने उत्पात मचाने वाले व्यक्ति हुए, वे सब के सब असंयमि-गृहस्थ एवं अल्पज्ञ ही थे। उन्होंने बिना कारण एवं बिना प्रमाण धर्म के अन्दर भेदभाव एवं संसार भर में फूट कुसम्पादि डाल कर छेश के ऐसे बीज बो दिये कि जिनके महान् भयंकर कटुक फल आज पर्यन्त हम लोग चख रहे हैं । उस समय का छिन्न भिन्न हुआ संघ हजारों प्रयत्न करने पर भी आज तक भी संगठित नहीं हो सका। यदि यह कह दिया जाय कि संसार के पतन का मुख्य कारण वे क्लेशोत्पादक व्यक्ति ही हैं. तो भी अतिशयोक्ति नहीं है । ___ उन विध्नोत्पादकों में लौंकाशाह नामक व्यक्ति भी एक है । उन्होंने वि० सं० १५०८ में जैन श्वेताम्बर समुदाय के अन्दर धर्म भेद डाल कर अपने नाम पर एक नया मत निकाला परन्तु उस मत की नींव शुरू से ही कमजोर थी और गति भी बहुत मंद थी क्योंकि लौंकाशाह के बाद कुछ समय व्यतीत होने पर जिस क्रिया का 'लोकाशाह ने विरोध किया था उसी क्रिया को
आप के अनुयायियों ने स्वीकार कर लिया फिर तो लौंकाशाह की स्मृति मात्र केवल 'लौकामत' नाम ही रह गया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org