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जैनाचार्यों के ग्रन्थ
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की इस अनुचित वृत्ति से उसकी पूर्व प्रतिज्ञा का क्या बलिदान नहीं हुआ है ?
इससे आगे शाह ने अपनी ऐ. नो. पृष्ट ३० में कई अर्वाचीन आचायों के रचित ग्रंथों के उदाहरण देकर अपनी अनभिज्ञता का दिगदर्शन करवाया है । क्योंकि शाह के मान्य मत की टूटी फूटी टटपूँजी दुकान से तो मिलता ही क्या है ? जिसका कि शाह अपनी पुस्तक में स्वतंत्र वर्णन करते । हाँ, जैनधर्म जरूर विशाल दुकान रूप है जिसमें अच्छा से अच्छा सब तरह का माल मिलता है जैसे जैनागमों में बारहवाँ दृष्टिवाद नामक अङ्ग है जिसमें धार्मिक, राजनैतिक सांसारिक, व्यापारिक, वैद्यक, ज्योतिष, शकुन, स्वरोदय, संग्राम, मंत्र, यंत्र आदि सांसारिक छोटे से बड़ा सब प्रकार का उल्लेख है । ऐसा कोई भी विधान शेष नहीं है जो इस दृष्टिवादांग में नहीं हो ! इस दृष्टिवाद के रचयिता भी कोई साधारण व्यक्ति न हा कर स्वयं तीर्थङ्कर गणधर हैं और इनकी परम्परा में अनेकों धर्म धुरन्धर बड़े बड़े विद्वान आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अनेकों विषयों पर अनेकानेक उत्तम ग्रंथ रचे हैं । पर शाह को इतना ज्ञान हो कहाँ है कि वस्तु-धर्म का प्रतिपादन करना ज्ञान का विकास है और आदेश उपदेश देना तथा नहीं देना यह चारित्र धर्म का रक्षण है । जब शाह कई एक साधारण ग्रंथों को देखते हैं तो उनका पेट फूल उठता है, और जैनाचार्यों की मिथ्या निंदा करने को उतारू हो जाता है, पर खास शाह के माने हुए ३२ सूत्रों में चन्द्रप्रज्ञाप्ति और सूर्य प्रज्ञाप्ति नामक सूत्र है उनको देखने पर यह मालुम होगा कि इन मूल सूत्रों में भी कैसे कैसे विधान हैं जो नक्षत्रों के अधिकार में आते हैं।
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