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________________ इसके अलावा विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के इस विषय के और भी कई प्रन्थ मिलते हैं और कई मेरे पास भी विद्यमान हैं पर वे लौकाशाह के बाद के हैं और यहाँ ऐतिहासिक प्रमाणरूप लौकाशाह के सम सामयिक या आपके पास पास के समय के प्रमाणिक प्रन्थों को ही स्थान दिया गया है और इन प्रमाणों से यही ध्वनी निकली है कि लौंकाशाह ने अपने अपमान के कारण मन्दिर उपाश्रयों से खिलाफ हो जैनश्रमण, जैनागम, सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान, और देवपूजा को मानने के लिये इन्कार किया था, साथमें एक और भी निपटाराहो जाताहै कि लौकाशाह ने अपने जीवन में किसी समय मुँहपत्ती में डोराडाल दिनभर मुंहपर कभी बांधी थी, इस बात की चर्चा लौकाशाह के जीवन में कहीं भी नहीं मिलती है । इतना ही क्यों पर लौंकाशाह के बाद २०० वर्षों तक भी न तो किसी ने डोगडाल मुंहपर मुँहपत्ती बाँधी थी और न इस बात का उस समय के साहित्य में खण्डन मण्डन ही हुआ है। इससे स्पष्ट पाया जाता है कि मुँहपर दिनभर मुंहपत्ती बाँधने की प्रथा विक्रम की अठारहवीं शताब्दी से प्रारंभ हुई है और इस प्रथा को चलाने वाले स्वामि लवजी होथे ! यह सब हाल इस किताब के आद्योपान्त पदने से पाठक स्वयं जान सकेंगे ज्यादा क्या । शुभम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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