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परिशिष्ट नम्बर ३ लौकामत और स्थानकमार्गियों से आए हुर
प्रसिद्ध विद्वान साधुओं की
संक्षिप्त परिचय लौकाशाह एक साधारण व्यक्ति होने पर भी वह क्रूर प्रकृति वाला था । विक्रम को सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में एक ओर तो भस्मग्रह की अन्तिम फटकार और दूसरी ओर धूम्रकेतु नामक विकराल ग्रह का संघ की राशिपर संक्रमण इत्यादि कारणों से इधर तो लौकाशाह का जैन यतियों या जैन संघ द्वारा अपमान
और उधर यवन लेखक शैयद के संयोग का होना बस इसी कारण लौकाशाह ने एक नया मत निकाला। पर इस मत की नींव बहुत कमजोर थी, कारण लौंकाशाह जैनश्रमण, जैनागम,सामायिक, पौसह,प्रतिक्रमण,प्रत्याख्यान,दान और देवपूजा से बिलकुल खिलाफ होगया था। इस हालत में मत का चलना असम्भव नहीं पर कठिन जरूर था । पर भवितव्यता के कारण भाणा आदि तीन मनुष्य लौकाशाह को अपनी अन्तिम अवस्था में मिल गए और उन्होंने स्वयं साधुवेश पहिन के लौंकाशाह के देहान्त के बाद इस मत को चलाया और जहाँ जैन यतियों के विहार का प्रभाव था वहाँ भद्रिक जनता को सत्यधर्म से पतित बना अपना वाड़ा बढ़ाया, और धीरे-धीरे लौंकाशाह से छोड़ी हुई धर्म क्रियाओं को भी फिरसे अपने मत में स्थान देते गए, परन्तु जब जैनाचार्यों का अन्यान्य प्रान्तों में विहार शुरू हुआ तो लौका मत वालों के किल्ले की दीवार टूट २ कर गिरने लगी जिसका संक्षिप्त परिचय पाठकों को यहाँ करवा देते हैं।
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