SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૪૦ वधमाननी पेठीं एकी, विचरs देश विदेशी छेकी; पाटपरंपरा चालई शुद्धि, पाटे भद्ररूषि सुबुद्धि. २२ लवण रूषि भीमाजी स्वामी, जगमाला रूषि सरवा स्वामी; बीजो नीकल्यो कुमति पापी, तेणई वली जिनप्रतिमा थापी. २३ रूपजी जीवाजी कुंवरजी, वीहरइ श्रीमलजी रूषीवरजी; प्रणमी पूज्य तis वरपाया, गावइ केशव नीत गुरुराया. २४ इति चतुवींशी समाप्त* [ बंबई समाचार दैनिक अखबार ता. १८-७-३६ के अंक में एक 'जैन' का नाम से प्रकाशित लेख की नकल ] * यह कविता खास लौंकागच्छीय केशवजी ऋषिकी है और आप के लिखने से यह स्पष्ट हो जाता हैं कि लौंका शाह देवपूजा दान आदि को नहीं मानता था । केशवजी ऋषि का समय यति भानुचन्द के बाद का होना चाहिये । लौकागच्छ की पटावलि में एक नानी पक्ष के स्थापक केशवजी ऋषि हुए हैं, पर वे लोंकाशाह के पन्द्रहवे पाटपर हुए है तब इस कविता के कर्ता केशवजी रूषि पूज्य श्रीमलजीकों अपने गुरु बताते है और श्रीमलजी लोकाशाह के आठवे पाट जीवाजीर्षि के तीन शिष्यों में एक थे यदि केशवजीषि श्रीमलजी के ही शिष्य हैं तो आपका समय वि. सं. १६०० के आसपासका ही समझना चाहिये जो लौंका - गच्छीय यति भानुचन्द्र के करीबन २५-३० वर्षो बाद हुए हैं और इन दोनों की मान्यता भी मिलती झूलती है अतएव इन दोनों के समय तक लोंकों की मान्यता वही थो कि दान और देव पूजादि धर्मक्रियाओं वे लोग नहीं मानते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy