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पोसह पडिक्कमणु पञ्चखाण, जिन पूजा नहीं मानइ दांन । .. रे कुमति ! किंम बोलई इस्यु, सा. लुंके उत्थाप्यु किस्युं ॥१६॥ सामाइक टालई बे वार, पर्व परे पोसह परिहार । पडिक्कमणुं विन व्रत न करई, पञ्चखांणइ किम आगार धरई॥१७॥ टालइ असंयति नई दान, भाव पूजाथी रूडउ ज्ञान । द्रव्य पूजा नवि कही जिनराज, धर्म नामइं हिंसाइ अकाज ॥१८॥ सूत्र बतीस साचा सद्दह्या, समता भावे साधु कह्या । सिरि लुंकानो साचो धर्म, भ्रमे पड़िया न लहइ मर्म ॥ १९ ॥ निंदइ कुमति करइ हटवाद, वींछी करड्यो कपि उन्माद । मूसा बोलइ बांधई कर्म, किम जाणइ ते साच्चोउ मर्म ।। २० ॥ जयणाइ धर्म ने समताइ धर्म, ते टालि किम बांधीउ कर्म ? जे निदे ते संचइ पाप, समता विण सहु धर्म पलाप ॥ २१ ॥ दया धर्म श्री जिनवरे कयो, सा. लुंके तहने संग्रह्यो। तेहीज आज्ञा पाली अम्हे, शुं खोटउ लागई छई तम्हें ॥२२॥ शुं दयामां तम्हे मान्यो पाप, किम मांड्यो एटलो विकलाप ? सूत्रनी साखी लो तुमे जोय, दयाविहुणो धर्म न होय ॥२३॥ जे जिण आणा पालई शुद्धि, तेहने नमवा होउ मुझ बुद्धि । दुहवाणुं मन परनुं जउ, मिच्छमि दुक्कडं मुझने हउ ॥ २४ ॥
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