________________
२२७
नरनारी एकमनां थइ, भणइ गुणइ जे ए चउपइ, मुनि लावण्यसमयं इम कहइ, ते मनवंछित लीला लहइ. १८१
इति श्री सिद्धांतचतुःष्पदी ॥ लुकटवदनचपेटाभिधाना॥ लिखिता परोपकाराय ।। शुभं भवतु । लेखकपाठक्योः ॥ श्री ॥
१ श्रीमान् पं. मुनिश्री लावल्यसमयकी दीक्षा वि० स० १५१५ में हुइ थी अतएव आपश्री लौकाशाह के समसामायि+थे इस लिये आपका ग्रंथ में लौंकाशाह की मान्यता का खण्डन किया है वह यथार्थ ही हैं क्यों कि आवेशमें आया हुआ लौकाशाह जैनागम जैनश्रमण, सामायिक, पोसह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और देवपूजा का उस समय निषेध करताथा इस लिये ही आपने इतना विस्तारसे उसी समय यह शास्त्र प्रमाणोंद्वारा चौपाई बनाइ थी।
* इस चौपाई की प्राचीन प्रति पाटण का ज्ञान भंडार में विद्यमान हैं। श्रीमान् मोहनलाल दलीचंद देसाईने इसे प्राप्त कर वि. सं. १९८६ का जैनयुग मासिक पत्र का अंक ९-१० का पृष्ठ ३४० पर छपवाई थी उस परसे हिन्दी टाइपो में उसी रूप में यहां ङपाइ गई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org