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एक पयजलि भीतरि थलि एक, इणिपरि जइ आवता अनेक, दोष रहित भिक्षानइं काजि, न गणि विराधना रिषि राजि. ९६ इम अपवाद तणा पद जोइ, निश्चई भंगि भलां फल होइ, केवलि वात प्रकासइ इसी, ते मानता विमासण किसी? ९७ त्रिणि उकाला वलि आ पषइ, फासु नीर कहइ ते झपइ, चाउल धोअणनूं जल जेउ, बि घड़ी पूंठि फासि तेउ. ९८ ग्लान महारिषि सहि गुरु तणी, उपधि विधिइ सिंउ धोवी भणी, ए त्रिणिई तिहि बोली ऊत्ति, जोज्यो पिंडतणी नियुक्ति. ९९ यतिनई रोगि चिकित्सा कही, चउमासी पडिकमणुं सही, सूतिकर्म तीर्थकर तणा, अठाइ दिनि उत्सव घणा. १०० थानक वीस ह्यां छइ सही, जेह विण तीर्थकर पद नहीं, छठ अनई अठम तप जेउं, वली विशेषत जाणे तेउ. १०१ शत्रुजय तीरथ गिरनार, सिद्धक्षेत्र थापना विचार, छठइ अंगि अनइ आठमइ, ए छ बोल कह्या मझ गमइ. १०२ गहिला गामठ मूढ गमार, पभणइ श्री सिद्धांत विचार, योग अनइ उपधान विहीन, जाते दिनि ते थासिइ दीन. १०३ भाव हुइ जु दीक्षा तणउ, छ जीवणी लगइ तु भणउ, योग वह्या विण आघउ सही, श्री सिद्धांत भणाइ नहीं. १०४ सीकी पडिलेहण अति खरी, लेवा काल अवधि परिहरी, त्रिहुत्तिरि बोल भला मनि वसइ, तु समकित मूर्धू उल्लसइ. १०५ जसु धरि झाझा माणस जिमइ, ते उद्देशिक म कहु किमइ ? हरिकेसी रिषि लिइ आहार, नवि लागइ तसु दोष लगार. १०६
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