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देव अवंतीमई सुणिउ, तिहा मंडपगढ जोइ । तिहां वछीआती आविआ, मिल्या लखमसी सोइ ॥ ८ ॥ लुंकड द्रव्य अपावि करि, लोभई कीधउ अंध । लुंकामत लेवा भणि, पारखि ओडिउं खंध ॥९॥ पारखि हुउ कुपारिखी, जोइ रचिउ कुधर्म । पारखि किंपि न परिखिडं, रयण रूप जिनधर्म ॥१०॥
चुपइ लुंकड वात प्रकासी इसि, तेहनुं सीस हुउ लखमसी, तीगई बोल उथाप्या घणा, ते सघला जिनशासन तणा. ११ धन धन जिनशासन सिणगार, जिनभाषित सिद्धांत विचार, जास प्रतापिइं लहीइ मांन, कुमतीकोइ न काढइ कान धन० १२ मति थोडी नइ थोडं ज्ञान, महीयलि वडूं न माने दान, पोसह पडिक्कमणुं पञ्चखाण, नवि माने ए इस्या अजाण. ध० १३ जिनपूजा करवा मति टली, अष्टापद बहु तीरथ वली, नवि माने प्रतिमा प्रासाद, ते कुमती सिउँ केहु वाद. ध० १४ कुमति सरिसुं करतां वात, नव निश्चे लागे मिथ्यात, जिनशासने मंडिउ संताप, ऊवेषिई अधिकेरुं पाप. ध० १५
१ लौंकागच्छीय यति भानुचन्द्र तथा यति केशवनीके ग्रन्थों से भी यही सिद्ध होता है कि लौंकाशाहने प्रारंभ में जैनागम सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, प्रयाख्यान, दांन और देवपूजा मानने से इन्कार करदिया था।
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