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जैनसाधुओं का आ० व्य
पर एक एक को उत्सूत्र प्ररूपक मिथ्यात्वी बतलाने में भी नहीं चूकता था तब श्री सत्यविजय पन्यास ने गुरु आज्ञा ले कर केवल शिथिलाचार निवारणार्थ कई मुनियों को साथ लेकर क्रिया उद्धार कर उपविहार करते हुए अनेक भव्यों को उपविहारी बनाये । जैसे धर्मसिंहजी और लवजी के विषय में लौकागच्छियों की पुकार है कि ये दोनों व्यक्ति गच्छ बाहर हैं उत्सूत्र प्ररूपक हैं, निन्हव हैं, इत्यादि पर श्रीमान् पन्यासजी के विषय में उस समय से आजपर्यन्त किसी ने ऐसा एक शब्द तक भी चारण नहीं किया है बल्कि शिथिलाचारियों ने भी आपका उपकार मान यथा विध अनुकरण ही किया है। अतएव विद्वत्ता पूर्ण शान्ति के साथ क्रिया उद्धार इसका नाम होता है और पन्यासजी का किया हुमा क्रिया उद्धार आज तक उसी रूप में चल भी रहा है ।
इतना विवेचन करने के बाद अब हम इस विषय को यहीं विश्रांति दे चौबीसवें प्रकरण में हिंसा, अहिंसा की समालोचना करेंगे, पाठक उसकी राह देखें ।
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