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प्रकरण तेवीसा
१८२ __ इत्यादि कुच्छ यति आचार शैथिल्य होने पर भी लौकाशाह के समयमें जैनशासन के अन्दर बहुत से प्राचार्य और साधु-अविहारी, शुद्धाचारी, महाविद्वान् तथा धर्मनिष्ठा वाले भूमण्डल पर विहार करते थे। परन्तु कई यति लिङ्गधारी तथा उपास। बद्ध भी थे, जिनके श्राचार में दोष देख लौकाशाह ने नया मत निकालने का दुस्परिश्रम किया, परन्तु लौंकाशाह ने जिस कारण को देख जैन शासन का अंगच्छेद किया था, उस कटे हुए अंग में भी वही कारण सौ वर्ष के पहिले २ ही आ घुसा, जो उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट विदित होता है। फिर भी लौकाशाह के समय में जैन यतियों का आचार इतना नष्ट नहीं हुआ था जितना लौकाशाह के १०० वर्ष बाद लौंकाऽनुयायी यतियों का नष्ट हुआ। इसका कारण हमारी बुद्धि से तो कर्तव्याऽकर्तव्य का अविवेक ही था। ___ जब लौंकाशाह के अनुयायियों का पतन अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया, तब भी इनके अन्दर कोई ऐसा महापुरुष प्रकट महीं हुआ, जो लौंकाशाह के मूल सिद्धान्तों को समझ कर इस बिगड़ी दशा को सुधारता ? जैसे कि यतियों की शिथिलता का उद्धार पंन्यासजी श्री सत्य विजयजी गणी ने किया।
परन्तु पन्यासजी का किया उद्धार लौंकामत के यति धर्मसिंह लवजी जैसे अज्ञात मनुष्यों के सदृश नहीं था क्योंकि धर्मसिंह एवं लवजी ने न रखी जिनाज्ञा और न रखी लौंकाशाह की मर्यादा । इतना ही नहीं पर उन दोनों यतियों ने तो खास लौकाशाह के सिद्धान्त को भी मिथ्या ठहराने की उद्घोषणा करदी और अपना मन कल्पित नया मत चलादिया जिसमें भी इन दोनों के अन्दर भी विचारभेद, मतभेद, सिद्धान्तभेद था, इतना ही नहीं
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