SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण - तेवीसवाँ जैन साधुओं का आचार व्यवहार जैन न समाज, एवं जैनधर्म का मुख्य उद्देश्य आत्म कल्याण करने का है और आत्म-कल्याण साधने वालों की तीन श्रेणियें कही गई हैं । ( १ ) प्रथम तो सम्यग् दृष्टि । (२) दूसरी अणुव्रतधारी श्रावक । और ( ३ ) तीसरी साधु श्रेणी । सम्यग्दृष्टि और श्रावक के लिए उनकी इच्छाSनुकूल नियम रक्खे गए हैं, पर साधुओं के लिए तो कठिन से afor frent का विधान है। संसार का कोई भी धर्म, जैनों के साधुधर्म की समता नहीं कर सकता । जैन साधुओं के आचार दो प्रकार के कहे गए हैं। प्रथम तो श्रध्यवसाय और दूसरा, बाह्य क्रियात्मक | इनमें भी यदि व्यक्तिगत तौर से देखा जाय तो एक दूसरे के चारित्र में कोई बराबरी नहीं है । क्योंकि चारित्र का पालन करना यह चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम पर निर्भर है। जिसको जितना, जितना चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम हुआ है, वह उतना ही आचार का पालन कर सकेगा । इसी कारण शास्त्रकारों ने चारित्र के भी कई दर्जे बतलाए हैं जैसे: - ( १ ) सामायिक चारित्र, मूल, उत्तरगुण का परिसेवी ( दोषों का लगना ) या अपरिसेवी ( दाषा का अभाव ) । १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy