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प्रकरण बावीसवाँ
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इत्यादि अनेक कारणों से स्थानकमार्गी लौंकाशाह के अनुयायी सिद्ध नहीं होते हैं। हाँ ! यह लौंकाशाह के मत के अंदर से निकला हुआ एक स्वछन्द मत है । देखिये:
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( १ ) धर्मसिंह जब संघ के बाहिर हुए तो किसी गुरु के पास न जा कर स्वयं साधु वेश परावर्तन करके साधु बन गए ।
( २ ) लवजी को जब गच्छ से अलग किया तो, लवजी ने अपने पूर्व गुरु को ही हीनाऽऽचारी समम स्वयं वेश बदला के साधु बन गया ।
( ३ ) धर्मदासजी गृहस्थ होकर भी बिना गुरु के स्वयं वेश पहिन दीक्षित होगए ।
यह प्रवृत्ति ( बिना गुरु के स्वयं दीक्षित होने की ) इनमें अद्यावधि भी पूर्ववत् वर्तमान है ।
इस मत ( स्थानक ० ) की नींव प्रारंभ से ही इतनी दुबली थी कि लोकाशाह के विरुद्ध होने पर भी इनका काम लौंकाशाह के बिना नहीं चल सका और आखिर इनके श्रागे नत मस्तक होना पड़ा, तथा सांप्रत में भी इनके यति और श्री पूज्यों से द्वेषाऽऽधिक्य होने पर भी इन ( स्थान० ) को उनके आगे काम पड़ने पर जबरन मुकना पड़ता है ।
अन्त में हम विशेष कुछ न लिख यही लिखते हैं कि प्रकृत विषय पर नाना प्रकरणों से हम खुलासा कर चुके । अब शेष प्रकरणों में अविशष्ट विषयों का वर्णन करने का प्रयत्न करेंगे तदनुसार पाठक इसके अगले प्रकरण (२३) में जैन साधुओंका श्राचार व्यवहार, लौंकाशाह के समय में कैसा था, इसका विवरण पढ़ें |
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