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________________ क्या० स्था० लौं० अनु० है (१३) लौकाऽनुयायी कंद मूल का आहार शाक-पात्र में भी नहीं ग्रहण करते थे, और स्थान० कांदा (प्याज) लसण आदि को भी लेने से बाज नहीं आते। (१४) लौंकाऽनुयायी वासी अन्न, विद्वल आदि पात्रों में नहीं लेते हैं परंतु स्थानक० उन्हें बड़े मजे से हड़प कर जाते हैं। (१५) लौंकाऽनुयायी ऋतुवती स्त्रियों का बड़ा भारी परहेज रखते हैं किंतु स्थानक० उनके हाथ से बनी हुई रोटी भी ले लेते हैं, यही नहीं किंतु स्थानक० ऋतुमती आर्याएं (बारजियों) सूत्रों को भी पढ़ लेती हैं और गोचरी को चली जाती हैं। इसीलिए तो गृहस्थ लोग जब पापड़, वड़िये बनाते हैं तब अपना द्वार बंद कर देते हैं। क्योंकि उनको भय रहता है कि कहीं श्रारजियें भागई तो "पापड़-बड़ी" बिगड़ जावेंगी। (१६) लौंकाऽनुयायी तीन दिन से अधिक दिनों का आचार श्रादि नहीं खाते थे, परंतु स्थानक० सर्वभक्षी हो रहे हैं। (१७) लौंकाऽनुयायी प्रायः श्रावकों के घरों से ही गोचरी लेते हैं क्योंकि वहाँ आहार पानी की पूरी शुद्धता रहती है। इसके विरुद्ध स्थानक० ऐसे घरों से भी भिक्षा ले लेते हैं, जहाँ न तो जैनाऽऽचार की शुद्धि रहती है और न साधुओं की महत्ता का ही खयाल रहता है । इत्यादि इनके अतिरिक्त भी ऐसी अनेक क्रियाएँ हैं जो लौकाशाह के अनुयायी अपनी परम्परा से ही करते आए हैं, उन्हें स्थानकमार्गी बिल्कुल नहीं करते हैं। और कई एक ऐसी क्रियाएँ हैं जिन्हें केवल स्थानकमार्गी करते हैं, लौंकानुयायी नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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