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________________ १७८ (२) छोपस्थापनाय चारित्र मूला उत्तर, गुण परिसेवी या अपारसवी प्रकरण तेवीसवाँ ( ३ ) परिहार विशुद्ध चारित्र अपरिसेवी ( ४ ) सूक्ष्म सपराय चारित्र अपरिसेवी ( ५ ) यथाऽऽख्यात चारित्र परिसंवी इनके अतिरिक्त छः प्रकार के निर्मन्थ बतलाये हैं । ( १ ) पुलाक निर्ग्रन्थ मूल व उत्तर दोनों का प्रति सेवी । ( २ ) बकुस निर्ग्रन्थ मूल गुण अपरिसेवी, उत्तर गुण परिसेवी । ( ३ ) प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ मूल, उत्तर गुण परिसेवी ( ४ ) कषाय, कुशील निर्ग्रन्थ अपरिसेवी । ( ५ ) निग्रंथ निर्मन्थ ( ६ ) स्नातक निर्ग्रन्थ इत्यादि "" यदि समग्र साधुओं का चारित्र एक सा होता तो पांच संयति और छ: निग्रन्थ बतलाने की आवश्यकता पर ऐसा हो नहीं सकता । क्या थी ? | ܕܕ अब आप भगवान् महावीर के समय की बात को ही देखिये -- एक सामायिक चारित्र वाला और दूसरा सामायिक चारित्र वाला के चारित्र पर्यव आपस में अनन्त गुण न्यूनाधिक हैं । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय चारित्र के पर्यव में भी अनन्त गुण हानि वृद्धि होती है । वकुश निग्रन्थ के भी एक-एक के आपस में अनंत गुण हानि वृद्धि होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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