________________
१४५
क्या० लौं० दी० ली थी ?
प्रकट होता है। संभव है संतवालजी तो इस विभिन्नता को मिटाने के लिए अपने पूर्वेतिहास को बदल कर नये सांचे में भी ढाल दें, परन्तु स्वर्गीय शाहजी के इतिहास की क्या दुर्दशा होगी ? यह विचारणीय है । हमारे खयाल में तो इनकी भी वही हालत हुई है जो इस कविता से प्रकट होती हैः
"उधर को कुत्रा इधर को खाई ।
जावें जिधर कों है मौत आई" ॥
सारांश - यदि वे मणिलालजी को मानें तो शाद और संतबालजी ठुकराये जाते हैं और इन युगल महात्माओं को मानें तो "मणि माल" से बिछुड़ पड़ती है। क्या करें इन झूठी कल्पनाओं ने गजब ढा दिया । ये जगत में कुछ कर तो सकी नहीं किन्तु स्वयं भी विश्वास योग्य नहीं रही। जैसे लौंकाशाह के विषय की पूर्वोक्त सब कल्पनाएँ खोज से मिथ्या ठहरती हैं वैसे ही इनका परिभ्रमण भी धर्म प्रचारार्थ कहीं हुआ हो यह भी मिथ्या है इसका खुलासा, प्रकरण उन्नीसवें में दृष्टिगोचर करें
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org