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________________ प्रकरण अठ्ठारहवाँ १४४ हो सकता है ब वे इसके लिए भी कोई नई कल्पना कर लें । क्योंकि मूळ हांकने वाले तथा भूमि पर सोनेवाले के लिए कहीं भी संकुचित स्थल नहीं है । परन्तु स्वामीजी को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि साधु संतबालजी भी आपकी तरह नई रोशनी के विद्वान् हैं, वे आपकी इन थोथो दलीलों को क्या मानेंगे ? कदापि नहीं वे तो इन्हें एक क्षण में नष्ट कर देंगे । fassर्ष स्वरूप लौका शाह ने न तो दीक्षा लो, और न उस समय आपका शरीर ही दीक्षा के योग्य था । वे स्वयं संतबाल जी के शरीर में प्रवेश कर फरमाते हैं कि मैं बिलकुल बूढा और अपंग हैं; इस हालत में वे कैसे दीक्षा ले सकते थे ? अन्यत् लोकाशाह दीक्षा के काबिल ही नहीं थे, यह तो केवल नई रोशनी के स्थानकमार्गी अपने पर गृहस्थ गुरु का आक्षेप न हो या इसे दूर करने के लिए ही यह सब मिथ्या प्रपंच रचते हैं, परन्तु आजकल की जनता इतनी ज्ञान शून्य नहीं है कि प्रमाणशून्य कोरी कल्पनाओं को भी "बाबा वाक्यम् प्रमाणम्" के अनुसार सव समझ लें । कुछ देर के लिए स्था० साधु मणिलालजी का कहना, स्था० समाज सत्य भी मान लें तो इस मान्यता से संतबालजी और वा० मो० शाह का लिखा हुआ इतिहास मिट्टी में मिल जायगा, क्योंकि इन दोनों विद्वानों की कल्पना लौकाशाह की दीक्षा के नितान्त विरोध में हैं। मणिलालजी ने जो कल्पना यति रूपधारी लोकाशाह के सम्बन्ध में की है वही कल्पना संतबालजी और वा० मो० शाह ने गृहस्थ रूप लौकाशाह के साथ की है । इन विरुद्ध कल्पनाओं से दोनों प्रकार के लेखकों का पारस्परिक विरोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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