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कहाँ से हूँद निकाला ?क्या आपके द्वारा किया हुआ यह केवली
और चतुर्दश पूर्वधरों का अपमान नहीं है ? ___ खैर आगे आपने आचार्य हरिभद्र सूरि और हेमचन्द्रसूरि के बारे में जो शब्द लिखे हैं उन्हें लिखने के पहिले जरा उक्त आचार्यों और लौकाशाह की मिथः तुलना करके तो देखनाथा कि कहाँ तो शासन के सुदृढ़ स्तंभ रूप उक्त आचार्य प्रवर और कहाँ शासन भंजक लौंकाशाह । क्योंकि उक्त प्राचार्यों ने तो उपदेश देकर अनेकों बड़े २ राजा महाराजाओं एवं लाखों करोड़ों नये जैन बनाकर "अहिंसा परमोधर्म" की विजय पता का भारत के चारों ओर फहराई थी। तथा जिसके लिए क्या पौर्वात्य और पश्चिमात्य पण्डित आज भी मक्त कण्ठ से भूरि २ प्रशंसा कर रहे हैं अथवा इधर तो उन सूरीश्वरों ने ऐसे-ऐसे अत्युत्तम जनोपयोगी साहित्य का सजन कर संसार में जैनशासन को उज्वलमुखी बनाया था और उधर लोकाशाह ने बने बनाये घर में ही फूट डाल कर शासन को रसातल में पहुँचाया अर्थात् जैन शासन को पतन के गहरे गढ्डे में ढकेला, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि आचार्य हेमचन्द्र सरि के पूर्व दश करोड़ जैन थे उन्हें प्राचार्यश्री ने तो १२ करोड़ तक पहुँचाया और लौकाशाह के समय जो सात करोड़ जैन अवशिष्ट रहे थे उनमें फूट कुसम्प और अशान्ति पैदा कर तथा हिंसा और दया के वास्तव स्वरूप को न समझने के कारण भद्रिकों के हृदय को संकीर्ण बनाकर और मलीन क्रिया की प्रवृति चलाकर जैनोंका पतन प्रारंभ किया और आज उनकी संख्या नाम मात्र तेरह लाख तक पहुंचा दी है और न जाने भविष्य में इसका क्याभयंकर नतीजा
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