SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११ ) निकलेगा। इससे अब आप स्वयं समझ सकते हैं। कि लौकाशाह की क्रान्ति (१) से जैनधर्म एवं समाज को नफा हुआ या नुकसान ? । आगे चलकर आपने अपने लेख में अनेक स्थलों पर इतिहास शब्द का भी प्रयोग किया है संभव है ऐसा इसलिए किया हो कि जनता यह जान लें कि आप (संतबालजी) इतिहास के भी मर्मज्ञ हैं परन्तु इस विषय में हम अपनी ओर से कुछ न लिखकर आपके ही एक दो वाक्यों को यहाँ उद्धृत कर पाठकों को बतला देते हैं कि श्रीमान ने इतिहास का कहाँ तक अभ्यास किया है। आप एक जगह लिखते हैं :- "रवमभसूरि जेवा से घणा क्षत्रियों ने श्रोसा गाम मां जैन-धर्म ना श्रावकों बनाव्याछे" तथा इस लाईन के फुट नोट में आप पूर्वोक्त क्षत्रियों की जातियों के नाम इस प्रकार बताते हैं: "भट्टी, चहुँवाण, घेलोट, गोड़, गोहिल, हाड़ा, चादव, मकवाणा, परमार, राठोड़, अने थरादश रज. पूतों हता" जैन प्रकाश ता० ६६-६.३५ पृष्ठ ३३६ आपश्रीमान, रत्नप्रभसूरि का समय ई० सं० १६६ अर्थात् वि० सं० २२२ का बतलाते हैं और उस समय उपर्युक्त क्षत्रियों की जातियों का होना आप स्वीकार करते हैं। आपकी इस ऐतिहासिक विद्वत्ता को साधु (0) वाद१ है। आपकी लिखी उक्त जातिएँ उस समय शायद भविष्यवेत्ताओं को भी अज्ञात होंगी पर आपने १-यह समय वीरनिर्वाण सं. ७० का था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy