SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लौं जै० परिस्थिति होगया था । अर्थात् उस समय कोई भी साधु चैत्य (मंदिर) में नहीं ठहरता था। किंतु सर्वत्र बस्तीवासियों का विजय डङ्का बजरहा था। यह समय जैनधर्म की उन्नति का था, इस समय में जैन जनता की संख्या १२ करोड़ तक पहुँच गई थी । पहिले जो पुकार वार वार की जा रही थी, कि चैत्यवास को दूर करो वह पुकार चैत्यवास दूर होने से स्वतः नष्ट होगई थी, और फिर दो शताब्दी तक शासन ठीक व्यवस्था पूर्वक चलता रहा, किसी ने यह भावाज नहीं उठाई कि इस समय क्रियोद्धार की आवश्यकता है। इतना सब कुछ होने पर भी फिर हम लौकाशाह के समय को जब देखते हैं तो ऐसा कोई कारण नहीं पाया जाता है कि जिससे उस समय किसी परिवर्तन की आवश्यकता हो । यदि कोई आवश्यकता होती तो उस समय अनेक गच्छों के प्राचार्य और हजारों साधु विहार करते थे, वे आवाज उठाये बिना नहीं रहते जैसे कि चैत्यवासियों और शिथिला-चारियों के समय में हरिभद्रसूरि मुनिचन्द्रसरी और जिनवल्लभसूरि आदि ने उपदेश किया था। लौकाशाह के समय मुख्यतः उप विहारी क्रिया पात्र ही ये, पर गौणता में कई शिथिलाचारी भी हों तो भी संभव है; कारण दो हजार वर्षों में कई प्रकार की उथल पुथल हुई, और इतनी बड़ी संख्या वाले समाज में यदि कोई २ शिथिलाचारी रह भी जायें तो कोई बड़ी बात नहीं है। फिर भी वे ऐसे आचार भ्रष्ट नहीं थे, जिससे दुनियाँ उन्हें हेय समझे । उनका प्रभाव बड़े बड़े राजा महाराजाओं तक था। क्योंकि उनके पूर्वजों का जैन समाज पर पड़ा उपकार था, अतः यदि वे उनका आदर सत्कार करें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy