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प्रकरण दशवां
७४ उन्हें मान दें, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं थी उस समय कई लोग उपाश्रय वासी भी बन बैठे थे,जो पूर्व में चैत्यवासी थे । उनका चैत्यवास छुट जाने पर, वस्ती में रहते हुए भी उनकी कुल परम्पराऽऽगत प्रवृत्तिएँ ज्यों की त्यों विद्यमान ही रही होंगी, जो हो जहाँ विशाल समुदाय हो, वहाँ सब तरह के लोग हुआ ही करते हैं। किन्तु लौकाशाह की प्रथम भेंट यदि उन उपाश्रय वासियों से हुई हो, और अज्ञात लोकाशाह उनका शिथिलाचार देख भ्रमित हुआ हो, और उनके अवगुणवाद बोले हों तो उन यतियों ने उनका जरूर तिरस्कार किया होगा, और उनसे तिरस्कृत होकर ही यदि उसने अपना नया मत निकाला हो तो बहुत संभव है। कारण अन्य निमित्त तो कोई नजर नहीं पाता, जिससे रुष्ट हो लौकाशाह नया मत निकालता ?
स्थानकमार्गी साधु अमोलखर्षिजी, मणिलालजी, संतबालजा, और वाड़ीलाल मोतीलाल शाह ने लौं काशाह के जीवन में स्थान स्थान पर वारंवार इस शब्द का प्रयोग किया है कि उस समय चैत्यवासियों का बड़ा भारी जोर था, और लौकाशाह ने लाखों चैत्यवासियों को दयाधर्मी बनाया। किन्तु मेरे ख्याल से तो ये सब इतिहास ज्ञान से अभी अनभिज्ञ ही है और इनके शब्दों में समुदायकत्व का जहर भी टपक रहा है । पक्षपात के कीचड़ में फंस कर अपनी द्वेषानि की ज्वाला निकाल कर आपने अपने दावानल व्यथित हृदय को शान्त किया हो, तो बात और है । अन्यथा आपके लेखों में कहीं न कहीं तो यह प्रमाण मिलता कि उस समय अमुक साधु चैत्यवास करता था। श्री हरिभद्रसूरि का समय वि० की सातवीं शताब्दी और जिनवल्लभसूरि का समय
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