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प्रकरण दशवां बनाया, तथा जितने अजैनों को जैन बनाया, जितने तात्विक विषयों के ग्रंथ बनाए, और जितने शास्त्रार्थ कर विजय वैजयन्ती फहराई उतने पीछे के इतिहास में नहीं मिलते हैं। और यह भी नहीं है कि उस समय सब शिथिलाचारी एवं चैत्यवासी ही थे, क्योंकि उस समय भी कई एक क्रियापात्र एवं क्रिया उद्धारक हुए हैं।
और उस समय जो केवल चैत्यवासी, एवं शिथिलाधारी ही थे, उनकी नसों में भी जैन धर्म का गौरव अक्षुण्ण रखने को वह ओश भरा हुआ था, जो पीछे के साधुओं में आंशिक रूप से ही विद्यमान रहा । परन्तु आज हम आलीशान उपाश्रय, स्थानक और गृहस्थों के बंगलों में आराम करते हुए भी कुछ नहीं करते हैं, केवल गृहस्थों पर दम लगा रहे हैं, वस्तुत: शिथिलाचार
और चैत्यादिमठवास तो यही है । किन्तु अपनी गल्ती न देख उन पूर्वज महापुरुषों को शिथिलाचारी आदि से संबोधित कर उनकी निंदा करना पह भीषण कृतघ्नता ही है और संभव है भाज इसी वज पाप से यह समाज रसातल में जा रहा है।
ज्यों ज्यों क्रियावादी, बस्तीवासी, और उपविहारियों का जोर बढ़ता गया त्यों त्यों चैत्यवासियों की सत्ता हटती गई, विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में तो चैत्यवासियों की सत्ता बिलकुल ही मस्त होगई, कारण उस समय कलिकाल सर्वज्ञ, भगवान हेमचन्द्र सूरि रामगुरु ककसूरि, मल्लधारी अभयदेवसरि; वादीदेवसरि, जयसिंहसरि शतार्थी सोमप्रभसरि, जिनचन्द्रसूरि आदि सुविहिताचार्यों का प्रभाव चारों ओर फैल गया था,और महाराज कुमारपाल जैसे जैन नरेशों की सहायता से जैन धर्म का खूब प्रचार होरहा था, इसी से चैत्यवासियों का उस समय प्रायः अंत
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