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अर्थात् उक्त ग्रामका एक भाग अर्हत्शालापरमपुष्कलस्थाननिवासी भगवान् अरहंतदेवके लिए * दूसरा भाग अर्हत्प्रोक्तसद्धर्मके पालनेवाले श्वेताम्बर-महाश्रमणसंघके उपभोगके लिए और तीसरा भाग निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघके उपभोगके लिए दिया गया।
इन दानपत्रोंको विद्वानोंने ईसाकी पाँचवीं शताब्दिके पहलेका निश्चय किया है - और उस समय हम देखते हैं कि दिगम्बर-सम्प्रदायका मुनिसंघ मूलसंघ नहीं; किन्तु निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ कहलाता था।
* जैनहितैषी भाग १, अंक ५-६ में एक अध्ययनशील विद्वानका लिखा हुआ 'प्राचीन काल में जिनमूर्तियाँ कैसी थीं ?? शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें यह बतलाया गया है कि पहले तमाम जिनमूर्तियाँ दिगम्बर-वस्त्रादिचिह्नरहित होती थीं और उन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायके अनुयायी पूजते थे। इस दानपत्रसे भी उक्त बातकी पुष्टि होती है । क्योंकि इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर संघोंके लिए तो कालवंग ग्रामके दो जुदा-जुदा अंश दान किये गये थे, परन्तु जिनेन्द्रदेवका मन्दिर जान पड़ता है कि संयुक्त ही था और इसलिए उसके लिए उक्त ग्रामका तीसरा अंश दिया गया था । यदि ऐसा न होता, तो दोनों संघोंके मन्दिर भी जुदा जुदा होते और उनके लिए पृथक् पृथक् दानकी व्यवस्था होती।
x देखो जैनहितैषी भाग १४, अंक ७-८, पृष्ठ २२४-२९ ।
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