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________________ (१४) श्रुतावतारोक्त संघभेद दिगम्बर-सम्प्रदाय या मूलसंधके आगे चलकर अनेक भेद और उपभेद हो गये हैं । इन भेद और उपभेदोंके विषयमें अभीतक हमारा ज्ञान बहुत ही परिमित है । आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है कि आचार्य अर्हद्बलिने पुण्द्रवर्धनपुरमें शतयोजनवर्ती मुनियोंको एकत्र करके युगप्रतिक्रमण किया और समागत मुनियोंसे पूछा कि क्या सब मुनि आ गये ? तब उन्होंने उत्तर दिया कि 'हाँ भगवन् , हम सन अपने अपने संघ सहित आ गये । ' यह सुनकर उन्होंने निश्चय किया कि अब यह जैनधर्म गणपक्षपातके सहारे ठहर सकेगा, उदासीन भावसे नहीं और तब उन्होंने संघ या गण स्थापित किये । जो मुनि गुहाओंसे आये थे उनमेंसे कुछको ' नन्दि ' और कुछको 'वीर' संज्ञा दी, जो अशोकवटिकासे आये थे उनमेंसे कुछको ' अपराजित ' और कुछको 'देव' बनाया, जो पंचस्तूपोंसे आये थे, उनमेंसे कुछको · सेन ' और कुछको ' भद्र ' किया, जो शाल्मलिमहावृक्ष ( सेमर ) के मूल ( कोटर ) से आये थे, उनमें से कुछको 'गुणधर' और कुछको 'गुप्त ' किया, जो खण्डकेसर ( नागकेसर ) वृक्षोंके मूलसे आये थे, उनमें से कुछको · सिंह ' और कुछको ' चन्द ' किया । * ... गुहायाः समागता ये यतीश्वरास्तेषु । काँश्चिन्नंद्यभिधानान् काँश्चिद्वीराह्वयानकरोत् ॥ ९१ ॥ प्रथितादशोकवाटात्समागता ये मुनीश्वरास्तेषु । काँश्चिदपराजिताख्यान्काँश्चिद्देवाह्वयानकरोत् ॥ ९२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003657
Book TitleHarivanshpuranam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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