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मूल-संघ और निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ । यद्यपि बहुप्त समयसे दिगम्बर-सम्प्रदायके लिए मूलसंघ शब्द व्यवहृत हो रहा है; परन्तु सातवीं आठवीं शताब्दिके पहलेके ग्रन्थों या लेखोंमें इस शब्दका व्यवहार नहीं देखा जाता । जान पड़ता है, द्राविडसंघ, काष्ठासंघ, श्वेताम्बरसंघ आदिसे अपना पृथक्त्व और मौलिकत्व प्रकट करनेके लिए 'मूलसंध' शब्दकी योजना की गई है और इसलिए पिछले साहित्यमें ही दिगम्बर-सम्प्रदायके लिए मूलसंघ बहुतायतसे व्यवहृत हुआ देखा जाता है।
कदम्बवंशी राजाओंके जो तीन दानपत्र देवगिरि ( धारवाड़ ) में तालाब खोदते समय मिले थे और जो रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बई-ब्रांचके ३४ वें जर्नलमें प्रकाशित हुए हैं, उनमेंसे दूसेर दानपत्रमें कालवंग नामक ग्राम शिवमृगेश वर्माकी ओरसे दान किया गया है । उसके इस अंशको दोखिए
"...श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा कालवङ्गग्रामं त्रिधा विभज्य दत्तवान् । अत्र पूर्वमर्हच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवासिभ्यः भगवदहन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्यः एको भागः द्वितीयोहत्प्रोक्तसद्धर्मकरणपरस्यश्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय तृतीयो निग्रंथमहाश्रमण-संघोपभोगायेति । ......"
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