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प्रस्तावना टिप्पणके प्रारम्भमें एक वादीभमिहका उल्लेख निम्न प्रकार किया
_ 'तदेवं महाभागैस्तार्किकारुपज्ञातां श्रीमता वादीभसिंहेनोपलालितामाप्तमीमांसामलंचिकीषवः स्याहादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकाघरमदेकटकाराः सरयो विद्यानन्दस्वामिन तदादौ प्रतिज्ञाश्लोकमेकमाह ।।
-अष्टसहस्री टि० पृ० १ । ____ यहां लघुसमन्तभद्र (विक्रमकी १३ वीं शती) ने वादीभसिंह को समन्तभद्राचार्यरांचत आप्तमीमांसाका उपलालन (परिपोषण) कर्ता बतलाया है। यदि लघसमन्तभद्रका यह उल्लेख अभ्रान्त है तो कहना होगा कि वादीमसिंहने आप्तमीमांसापर कोई महत्वकी टोका लिखो है और उसके द्वारा प्राप्तम मांसाका उन्हों ने परिपोषण किया है । श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने' भी इसकी सम्भावनाको है और उसमें आचार्य विद्यानन्दके अष्टसहस्री गत 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मङ्गल वचनमनुमन्यन्ते' शब्दों केसाथ उद्धृत 'जयति जगति' आदि पद्यको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है। कोई आश्चर्य नहीं कि आप्तमीमांसापर विद्यानन्दके पूर्व लघसमन्तभद्रद्वारा उल्लिखित वादीभसिंहने ही टीका रचो हो और जिससे ही लघुसमन्तभद्रने उन्हें प्राप्तमीमांसाका उपलालनकर्ता कहा है और विद्यानन्द ने 'केचित्' शब्दोंके साथ उन्हींको टीकाके उक्त 'जयति' आदि समाप्तिमङ्गलको अष्टसहस्री के अन्तमें अपने तथा अकलङ्कदेवके समाप्तिमङ्गलके पहले उद्ध त किया है।
(५) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्यग्रन्थोंके कतो वादीमसिंह सूरि अतिविख्यात और सुप्रसिद्ध है। .
१ न्याय कृ० प्र० भा० प्रस्ता० पृ० १११।
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