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________________ स्याद्वादसिद्धि स्याद्वादवाणीकी गर्जना करनेवाला तथा दिग्नाग और धर्मकीर्ति के अभिमानको चूर-चूर करनेवाला प्रकट किया है । यथास्याद्वादग्रिमाश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते । १२ दिङ्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभङ्गो न दुर्घटः ॥ (३) श्रवण वेलगोलाकी मल्लिषेणप्रशस्ति (ई० ११२८) में एक वादीसह सूरि अपरनाम गणभृत ( आचार्य ) अजितसेनका गुणानुवाद किया गया है और उन्हें स्याद्वादविद्या के पारगामियों द्वारा आदरपूर्वक सतत वन्दनीय और लोगोंके भारी आन्तर तम को नाश करनेकेलिये पृथिवीपर आया दूसरा सूर्य बतलाया गया है । इसके अलावा, उन्हें अपनो गर्जनाद्वारा वादि-गजोंको शीघ्र चुप करके निग्रहरूपी जो गढ्डे में पटकनेवाला तथा राजमान्य भी कहा गया हैं । यथा वन्दे वन्दितमादरादहरहरस्याद्वादविद्या विदां । स्वान्त-ध्वान्त-वितान- धूनन- विधौ भास्वन्तमन्य भुवि । भक्त्या त्वाऽजितसेनमानतिकृतां यत्सन्नियोगान्मनःपद्म सद्म भवेद्विकास विभवस्योन्मत्त निद्राभरं ॥५४॥ मिथ्या-भाषण-भूषणं परिहरेतौद्धत्यमुन्मुञ्चत, स्याद्वादं वदतानमेत विनयाद्वादीभकठोरवं । नो चेचद्गुरुगर्जित-श्रं ति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतस्तूर्ण निग्रहजीणंकूपकुहरे वादि-दिपाः पातिनः ॥१२॥ सकल भुवनपालान म्रमूर्द्धा विबद्ध स्फुरित मुकुट चूडालीढ- पादारविन्दः । मदद खिल-वादी भेन्द्र कुम्भप्रभेदी, गणभृदजितसेनो भाति बादोभसिंहः ॥१७॥ - शिलालेख नं० ५४ (६७) । (४) अष्टसहस्रीके टिप्पणकार लघुसमन्तभद्रने भी अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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