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________________ २२ स्थाद्वादसिद्धि अत्यन्त जीण-शाला लिया है तथा पाद-के-पाद फिर भी ६७० जितनी कारिकाओंवाला भी यह ग्रन्थरत्न जैनदार्शनिक ग्रन्थोंके कोषागारको अपनी आभासे चमचमा देगा और उनमें प्रमुख स्थान ग्रहण करेगा। यह ताडपत्रीय प्रति अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण है और दीमकोंने उसके आदि, मध्य और अन्तके हिस्सोंको खा लिया है तथा अन्तके तीन पत्रोंको तो उन्होंने बहुत ही ज्यादा खा लिया है-पाद-के-पाद और कारिकाएँ-की-कारिकाएँ नष्ट होगई हैं। यह प्रति अनुमानतः एक हजार वर्षसे कमकी पुरानी नहीं होगी। पत्र लम्बेनुमा हैं और एक-एक पत्रके तीन-तीन भाग हैं तथा प्रत्येक भागमें :-६ पंक्तियाँ एवं प्रत्येक पंक्तिमें लगभग ६३-६३ अक्षर हैं। एक पृष्ठमें २५ अथवा एक पत्रमें ५० कारिकाएँ हैं। काश ! यह १४ पत्रात्मक प्रति भी न मिली होती तो जैन-वाङ्मयकी इस अमर कृतिके सम्बन्धमें इन दो शब्दोंके लिखनेका भी अवसर न मिलता। २. स प्रति-आरम्भमें हमें यही प्रति मिली थी और जिस परसे प्रेसकापी तैयार करने में इसके काफी अशुद्ध होनेसे दुहरातिहरा परिश्रम करना पड़ा। यह सरसावाबोधक 'स' नामक प्रति है। इसमें ८६ पृष्ठ हैं और प्रत्येक पृष्ठमें ११-११ पंक्तियाँ तथा एक-एक पंक्तिमें प्रायः १८-१८ अक्षर हैं । कागज २०४३०/- पेजी बादामी रंगका है और प्रतिलिपि नीली स्याहीसे लिखी पुष्ट है। इसमें कारिकाओंकी संख्या ताडपत्र प्रतिके अनुसार प्रकरणगत न देकर समग्र ग्रन्थकी दी है और वह १ से लेकर ५०१ तक है। कहीं-कहीं यह संख्या गलत भी लिखी गई है और 'अभावप्रमाणदूषणसिद्धि' नामके १२ वें प्रकरणमें ४३१ की संख्याके बाद अगली कारिकाकी, जिसकी प्राकरणिक क्रमसंख्या १३ है, ४३२ न लिखकर ४२२ लिखी गई है और इस तरह आगे सब जगह ११ कारिकाओंका फेर पड़ गया है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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