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________________ प्राकथन ग्रन्थकार वादीभसिंहके समयके सम्बन्धमें सम्पादकने पर्याप्त अहापोह करके उनका समय ई० ७७० से ८६० तक सिद्ध किया है। साथ ही बाधकोंका निराकरण भी किया है । पर "अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती" पदोंका साम्य आकस्मिक नहीं कहा जा सकता। और यही एक ऐसा वाधक है जो सन्देहको थोड़ा अवकाश देता है। पर यदि आदिपुराणकारने इन्हीं वादिसिंहका उल्लेख किया है तो उक्त सन्देह निराधार हो जाता है। ऐसी दशामें यही मानना होगा कि परिमल कविने यहांसे इस परिमलका संचय किया होगा। ___अन्तमें मैं सम्पादकके अध्यवसायकी सराहना करता हूँ और उनसे ऐसे ही अनेक ग्रन्थों के संपादन-संशोधनकी आशा करता हूँ। ___अन्तमें मैं समाज और साहित्यप्रकाशिनी संस्थाओंके संचालकोंसे एक निवेदन कर देना चाहता हूँ कि पुरातन आचार्यों की जीवन्त कृतियोंका उद्धार, सम्पादन-प्रकाशन आदि उद्धारकी भावनासे करें, ‘इन्हें छपा कर क्या होगा ?', 'यदि ये न छपतीं तो क्या काम रुक जाता ?', 'छपा छपाकर रखते जाओ बिकती नहीं' आदि व्यापारिक भावनासे नहीं। साहित्यकार उस माँकी तरह है जो अपने ज्ञान-यौवनमें मानस-गर्भको धारण कर चिरसाधनाके बाद एक विचार-शिशुको जन्म देती है । उसके गर्भकालके भोजनके वजनसे उस शिशुको तौलना मातृत्वका अपमान करना है। जड़से जड़ तो तौला जा सकता है पर उसकी चेतनाका भी क्या मोल-तोल किया जा सकता है ? हम आज तक मनुष्य हैं, जैन हैं और अहिंसा तथा अनेकान्तदर्शनकी ज्योतिको अपने निर्बल जड हाथोंमें थामे हुए हैं। यह इन्हीं ग्रंथों की परम्पराका पुण्य फल है। अतः इन ज्योतिधरोंको स्नेहदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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