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________________ स्याद्वादसिद्धि धाराप्रवाही, प्रतिक्षण-परिवर्तित संस्कारग्राही आत्मामें ही पुण्यपापकर्तृत्व, सदाचार, ब्रह्मचर्यवास आदि सार्थक होते हैं। इनमें न औपनिषदोंकी तरह शाश्तवादका प्रसंग है और न जड़वादियों की तरह उच्छेदवादका डर है। और न उसे उभयनिषेधक 'अशाश्वतानुच्छेद बाद' जैसे विधिविहीन दस निर्देश करनकी ही आश्यकता है। यही सब विचार कर भ० महावीरने लोक, परलोक, आत्मा आदि सभी पदार्थोंका अनेकान्तदृष्टिसे पूर्ण विचार किया और स्याद्वादवाणीसे उसके निरूपणका निर्दोष प्रकार बताया। यही जैन दर्शनकी पृष्ठभूमि है जिसपर उत्तरकालीन आचार्योंने शतावधि ग्रन्थोंकी रचना करके भारतीय साहित्यागारको आलोकित किया। अकेली 'स्याद्वाद' पर ही बीसों छोटे-मोटे ग्रन्थ लिखे गये हैं। ____ इस अनेकान्तके विशाल सागर में सब एकान्त समा जाते हैं। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरके शब्दों में ये स्याद्वादमय जिनवचन मिथ्यादर्शनके समूहरूप हैं ( इसमें समस्त मिथ्यादृष्टियां अपनी अपनी अपेक्षासे विराजमान हैं) और अमृतसार या अमृतस्वादु हैं। वे तटस्थवृत्तिवाले संविग्न जीवोंको अतिशय सुखदायक हैं । वे जगत्का कल्याण करें- ... ... “भ मिच्छादसणसमूहमइयरस अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।।" प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धिमें इसीलिये स्याद्वादके प्रसंगसे सर्वथा नित्यत्व-अनित्यत्व आदिका निराकरण अनेक प्रकरणों में करके अन्तमें यही दिखाया गया है कि नित्यानित्यात्मक स्याद्वादरूप आत्मामें ही पुण्यपापकर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि बन सकते हैं। वही सुखके लिये प्रयत्न कर सकता है। 10 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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