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किया है तथापि 'प्रत्याख्यान-आवश्यक' में नियुक्तिकार ने प्रत्याख्यान का सामान्य स्वरूप दिखाते समय अभिग्रह की विविधता के कारण श्रावक के अनेक भेद बतलाये हैं। जिस से जान पड़ता है कि श्रावक-धर्म के उक्त सूत्रों को लक्ष्य में रख कर ही नियुक्तिकार ने श्रावक-धर्म की विविधता का वर्णन किया है ।
आज-कल की सामाचारी में जो प्रतिक्रमण की स्थापना की जाती है, वहाँ से ले कर "नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' की स्तुति पर्यन्त में ही छह 'आवश्यक' पूर्ण हो जाते हैं। अत एव यह तो स्पष्ट ही है कि प्रतिक्रमण की स्थापना के पूर्व किये जाने वाले चैत्य-वन्दन का भाग और "नमोऽस्तु वर्धमानाय' की स्तुति के बाद पढ़े जाने वाले सज्झाय, स्तवन, शान्ति आदि, ये सब छह 'आवश्यक' के बाहभूत हैं। अत एव उन का मूल आवश्यक में न पाया जाना स्वाभाविक ही है ।भाषा-दृष्टि से देखा जाय तो भी यह प्रमाणित है कि अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी व गुजराती-भाषा के गद्य-पद्य मौलिक हो ही नहीं सकते; क्योंकि संपूर्ण मूल 'आवश्यक' प्राकृत-भाषा में ही है । प्राकृत-भाषा-मय गद्य-पद्य में से भी जितने सूत्र उक्त दो उपायों के अनुसार मौलिक बतलाये गये हैं, उन के अलावा अन्य सूत्र को मूल 'आवश्यक'-गत मानने का प्रमाण अभी तक हमारे. ध्यान में नहीं आया है । अत एव यह समझना चाहिये कि छह 'आवश्यकों' में "सात लाख, अठारह पापस्थान, आयरियउवज्झाए, वेयावच्चगराणं, पुक्खरवरदीवड्ढे, सिद्धाणं बुन्द्राण, सुअदेवया भगवई आदि थुई और नमोऽस्तु वर्द्धमानाय"
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