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( ४५ ) आदि जो-जो पाठ बोले जाते हैं, वे सब मौलिक नहीं हैं। यद्यपि "आयरियउयज्झाए, पुक्खरवरदीवड्ढे, सिद्धाणं वुद्धाणं" ये मौलिक नहीं है तथापि वे प्राचीन हैं; क्योंकि उन का उल्लेख करके श्रीहरिभद्र सूरि ने स्वयं उन की व्याख्या की है।
प्रस्तुत परीक्षण-विधि का यह मतलब नहीं है कि जो सूत्र मौलिक नहीं है, उस का महत्व कम है। यहाँ तो सिर्फ इतना ही दिखाना है कि देश, काल और रुचि के परिवर्तन के साथ-साथ 'आवश्यक'-क्रियोपयोगी सूत्र की संख्या में तथा भाषा में किस प्रकार परिवर्तन होता गया है।
यहाँ यह सूचित कर देना अनुपयुक्त न होगा कि आजकल देवसिक-प्रतिकूमण में "सिद्धाणं वुद्धाणं' के बाद जो श्रतदेवता तथा क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग किया जाता है और एक एक स्तुति पढ़ी जाती है, वह भाग कम से कम श्रीहरिभद्र सूरि के समय में प्रचलित प्रतिकूमण-विधि में सन्निविष्ट न था; क्योंकि उन्हों ने अपनी टीका में जो विधि देवसिक-प्रतिकूमण की दी है, उस में 'सिद्धाणं' के बाद पतिलेखन वन्दन करके तीन स्तुति पढने का ही निर्देश किया है (आवश्यक-वृत्ति, पृ०७९०)।
विधि-विषयक सामाचारी-भेद पुराना है, क्योंकि मूलटीकाकार-संमत विधि के अलावा अन्य विधि का भी सूचन श्रीहरिभद्र सूरि ने किया है (आवश्यक-वृत्ति, पृ०७९३)।
___ उस समय पाक्षिक-पूतिकमण में क्षेत्रदेवता का काउस्सग्ग प्रचलित नहीं था; पर शय्यादेवता का काउस्सग्ग किया जाता था।
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