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अङ्गबाह्य होने के कारण 'आवश्यक-सूत्र', गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी के बाद के किसी आचार्य का रचित माना जाना चाहिये। इस तरह उस की रचना के काल की पहली मियाद अधिक से अधिक ईस्वी सन् से पहले लगभग पाँचवीं शताब्दि के आरम्भ तक ही बताई जा सकती है। उस के रचना-काल की उत्तर अवधि अधिक से अधिक ईस्वी सन् से पूर्व चौथी शताब्दि का प्रथम चरण ही माना जा सकता है। क्योंकि चतुर्दश-पूर्व-धर श्रीभद्रबाहु स्वामी जिन का अवसान ईस्वी सन् से पूर्व तीन सौ छप्पन वर्ष के लगभग माना जाता है, उन्हों ने 'आवश्यक-सूत्र' पर सब से पहले व्याख्या लिखी है, जो नियुक्ति के नाम से प्रसिद्ध है । यह तो प्रसिद्ध है कि नियुक्ति ही श्रीभद्रबाहु की है, संपूर्ण मूल 'आवश्यक-सूत्र' नहीं । ऐसी अवस्था में मूल 'आव. श्यक-सूत्र' अधिक से अधिक उन के कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन किसी अन्य श्रुतधर के रचे हुए मानने चाहिये । इस दृष्टि से यही मालूम होता है कि 'आवश्यक' का रचना-काल ईस्वी सन् से पूर्व पाँचवीं शताब्दि से ले कर चौथी शताब्दि के प्रथम चरण तक में होना चाहिये।
१-- प्रसिद्ध कहने का मतलब यह है कि श्रीशीलाङ्क सूरि अपनी आचारङ्ग-वृत्ति में सूचित करते हैं कि 'आवश्यक' के अन्तर्गत चतुर्विशतिस्तव (लोगस्स ) ही श्रीभद्रबाहु स्वामी ने रचा है-"आवश्यकान्तभूतश्चतुर्विंशतिस्तवस्त्वारातांयकालभाविना श्रीभद्रबाहुस्वामिनाऽकारि" पृ० ८३ । इस कथन से यह साफ़ जान पड़ता है कि शीलाङ्क सूरि के जमाने में यह बात मानी जाती थी कि सम्पूर्ण 'आवश्यक-सूत्र' श्रीभद्रबाहु की कृति नहीं है।
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