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( ३९ । महावीर का निर्वाण हुआ। वीर-निर्वाण के बीस वर्ष बाद सुधर्मा स्वामी का निर्वाण हुआ । सुधर्मा स्वामी गणधर थे। 'आवश्यक-सूत्र' न तो तीर्थङ्कर की ही कृति है और न गणधर की । तीर्थङ्कर की कृति इस लिये नहीं कि वे अर्थ का उपदेशमात्र करते हैं, सूत्र नहीं रचते । गणधर सूत्र रचते हैं सही; पर 'आवश्यक-सूत्र' गणधर-रचित न होने का कारण यह है कि उस सूत्र की गणना अङ्गबाह्यश्रत में है । अङ्गबाह्यश्रुत का लक्षण श्रीउमास्वाति ने अपने तत्वार्थ भाष्य में यह किया है कि जो श्रत, गणधर की कृति नहीं है और जिस की रचना गणधर के बाद के परममेधावी आचार्यों ने की है, वह 'अङ्गबाह्य श्रत' कहलाता है। - ऐसा लक्षण करके उस का उदाहरण देते समय उन्हों ने सब से पहले सामायिक आदि छह 'आवश्यकों' का उल्लेख किया है
और इस के बाद दशवकालिक आदि अन्य सूत्रों का। यह ध्यान में रखना चाहिये कि दशवकालिक, श्रीशय्यंभव सूरि, जो सुधर्मा स्वामी के बाद तीसरे आचार्य हुए, उन की कृति है ।
1-"गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्तविशुद्धागमैः परमप्रकृष्टवाङमातिशक्तिभिराचार्यैः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत्प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति।" [तत्त्वार्थ-अध्याय १, सूत्र २० का भाष्य । ]
२- "अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा--सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवो वन्दनं प्रतिक्रमणं कायव्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशवैकालिकमुत्तराध्यायाः दशाः कल्पव्यवहारी निशीथमृषिभाषितान्येवमादि।" [तत्त्वार्थ-अ० १, सूत्र २० का भाष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
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